जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
सभी ने भिन-भिन लहजे में जवाब दिया, "जरूर उसे अचानक अपने घर की जरूरत पड़ गई होगी।"
यह भी कोई वात हुई? यहाँ के मकान-मालिक या मकान-मालकिन कानूनी तौर पर जितनी मुहलत देते हैं, उतनी तो मुझे भी देनी चाहिए! लेकिन नहीं, उतनी भी नहीं मिलने वाली!
बस अचानक हुक्म दे डाला, “सात दिनों बाद, मुझे घर की जरूरत है! घर खाली कर दो।"
“यही बर्ताव अगर तुम्हारे साथ किया जाता तो तुम लोग मानते?" मेरे इस सवाल पर चुप्पी छाई रही।
"मुझे पक्का विश्वास है कि तुम लोग नहीं मानते। तुम लोग सवाल उठाते। तुम लोग कानून दिखाते। है या नहीं? या तुम लोगों के साथ वह महिला यूँ पेश नहीं आती? मेरे ही मामले में ऐसा कर रही है?"
मैंने ये सवाल किए जरूर, लेकिन उन लोगों से कोई जवाब नहीं देते बना। वैसे अपने अंतस् की गहराइयों से इसका एक जवाब तो मिल ही गया। नहीं, औरों के साथ वह ऐसा नहीं करती। यहाँ के स्वीडिश लोगों के साथ ऐसा बर्ताव वह हरगिज नहीं करती।
उन लोगों ने मुझे सिखाया है, "अपनी शिकायतें तुम जाहिर मत करो क्योंकि शिकायत करना कतई शोभनीय नहीं है। दूसरों के प्रति श्रद्धा करो।"
“यहाँ तक कि अन्याय करने वालों के प्रति भी?"
"हाँ, उनके प्रति भी! क्योंकि वे भी इंसान हैं। उन्होंने अगर कोई गलती की है तो जरूर इसकी कोई वजह होगी। वह वजह खोजी जाए। उस वजह का इलाज करना चाहिए।"
सभी लोग बेहद भले हैं। उस महिला के पास भी सात दिनों बाद किराएदार से घर खाली कराने की कोई भली-सी वजह होगी। सात दिनों के नोटिस पर घर खाली करने के हुक्म फिलहाल सिर झुकाकर कबूल करना होगा। मेरे सलाहकार और सुरक्षाकर्मियों ने मुझ पर काफी जोर-जबर्दस्ती दबाव डालकर मुझे यह सबक पढ़ाया। मालिन कमरे में जितने सारे कपड़े पड़े थे, अचानक सब बटोरकर वाशिंग मशीन में डाल आई। जो रजाई इस्तेमाल भी नहीं की गई, उसे भी धोने के लिए मशीन में डालने को आमदा हो गई। क्यों भई? यही नियम है, लेकिन वह रजाई किसी ने इस्तेमाल भी नहीं की! भले ही इस्तेमाल न की गई हो, धोना जरूरी है। अब यही नियम है! समूचा घर, साफ-सुथरा करके सौंप जाना होगा। चलो, वह भी हो गया। कहीं बूंद-भर भी धूल नहीं रही। सब कुछ सजा-सँवार दिया गया। इसके बाद भी धूल झाड़ने की मशीन लगातार चलती रही, वाशिंग-मशीन में लगातार कपड़े धुलते रहे। चारों तरफ मशीनों की विकट आवाजें। नहीं, इस घर में मैं तारिका नहीं थी। मैं समझती हूँ! यहाँ मैं तीसरी दुनिया से आई हुई एक अशिक्षित, असभ्य लड़की हूँ। यहाँ तुम लोग मुझे ज्ञान दोगे और घर से बाहर निकलते ही, मुझे मंच पर चढ़ाकर, मुझसे ज्ञान लेने का नाटक करोगे। हाँ, मैं इसे नाटक ही कहूँगी। क्या सच ही मुझसे कोई शिक्षा लेते हो? मेरे तजुर्षों के किस्से सुनते-सुनते, तुम्हारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं-हाय माँ, वहाँ यह सब होता है?
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