जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
चूँकि वहाँ मैं उन लोगों द्वारा निर्यातित हुई हूँ, इसलिए तुम लोग तालियाँ बजाते हो। मैंने उनका विरोध किया, इसलिए तुम मुझे शाबाशी देते हो, लेकिन तुम लोगों के अन्यायों का विरोध करूँ, नैव च! नैव च! अगर मैं विरोध करना भी चाहूँ, तो तुम लोगों की भौंहें तन जाएँगी। तुम लोगों की मुद्रा ऐसी होती है कि यहाँ अगर कुछ विरोध करना भी हुआ तो तुम लोग करोगे! मुझे कुछ करने की जरूरत नहीं।
विशाल ज्ञान के साथ तुम लोग बात-बात में सवाल करते हो, “अच्छा, तुमने बताया कि तुमने डॉक्टरी पढ़ी है?"
"हाँ, पढ़ी तो है।"
"तुम किस किस्म की डॉक्टर हो?"
"किस किस्म की...क्या मतलब? डॉक्टर तो डॉक्टर होता है। मैं भी, इंसान बीमार होता है तो मैं उसका इलाज करती हूँ।"
“भई, डॉक्टर तो अनगिनत किस्म के होते हैं! तुम किस किस्म की हो, यह तो बताओ। जरूर अपनी देशी दवाओं की डॉक्टर होगी।"
"देशी डॉक्टर से तुम्हारा क्या मतलब है?"
"ट्रेडिशनल, मेरा मतलब है पारंपरिक इलाज! यही झाड़-फूंक, कविराजी, आयर्वेदिक...! क्या तो कहते हैं उन सबको...?"
“नहीं, मैं उन सबकी डॉक्टर नहीं हूँ। मैं एलोपैथिक डॉक्टर हूँ! बाकायदा विज्ञान के आधार पर डॉक्टरी करती हूँ!"
"तब तो तुम पश्चिमी दवाओं की बात कर रही हो।"
“दवाओं का कोई पश्चिम-पूरब होता है, यह तो मैं नहीं जानती थी।"
"वह तो अलवत्ता है! वे सब दवाएँ तो हम लोगों ने तैयार की हैं।"
“तुम लोगों ने, क्या मतलब है? तुम लोगों के देश की?"
"हाँ, हम लोगों की...मतलब पश्चिम की! वेस्ट की!"
"ओऽ!''
“पढ़ाई-लिखाई किस देश में की है? इंग्लैंड में?"
"ना!" "तो डिग्री किस देश से ली है?"
"अपने देश से! बांग्लादेश से!"
"बांग्लादेश से? वहाँ डॉक्टरी पढ़ाई जाती है?"
"बेशक होती है।"
"वहाँ के लोग लिखना-पढ़ना जानते हैं?"
"बेशक जानते हैं।"
"हुंहः, तुम सब यह सुनकर मानो आसमान से गिर पड़ते हो! जैसे गैबी को यह पता चला कि मैं कंप्यूटर पर लिखती हूँ, तो उसने सवाल किया था, “ए माँ! उस देश में कंप्यूटर है? हाँ, हर जगह यही धारणा, यही ख्याल पाला जाता है। इस बारे में कहीं कोई दूसरी राय नहीं है।"
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