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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


पैलेस के दरवाजे पर डेविड की एक मूर्ति रखी हुई थी। डेविड मेरी प्रिय मूर्ति है। हालाँकि उसके हाथ और सिर का अनुपात सही नहीं है, लेकिन उसका निष्पाप चेहरा और शत्रु की तरफ नफरत उछालने वाली आँखें अद्भुत भावमयी हैं। वैसे बाद में माइकेल एंजिलो म्यूजियम के म्यूजी उफिनि के हिस्से में डेविड की असली मूर्ति भी देख चुकी हूँ। माइकेल एंजेलो की अन्य कलाकृति-कैद से मुक्ति पाने का संग्राम भी मुझे बेहद पसंद आया। विंची की पेंटिंग देखकर यह साफ समझ में आ जाता है कि उन्होंने गोतो, फिलिपिनों, तिमिर, फ्रांसिस्को, बॉटीचेली की आबोहवा से बाहर निकल आने की कोशिश की थी। विंची की धार्मिक पेंटिग्स, सुनहरी और स्वर्गीय होने के बजाय माइकेल एंजिलो की तरह पंखदार पंछी के पंखों की तरह होती थीं, मदर मेरी की तस्वीर आँकते हुए, मेरी से ज्यादा उनके पैरों तले की घास ज्यादा जीवन्त होती थी। मेरे साथ फ्लोरेंस के कला-विशेषज्ञ भी उन सब म्यूजियमों में घूम रहे थे। तीन सौ दर्शकों की लंबी कतार की परवाह न करते हुए, मुझे सीधे अंदर ले जाया गया और मैं नियम तोड़कर ही मेडेसी की 16वीं सदी के बगीचे में भी दाखिल हुई। अपूर्व बगीचा था।

वहाँ मैं 800 साल पुराने उस पुल पर भी टहलती रही, जहाँ की दुकानें अब भी पहले जैसी ही सजी होती हैं. काठ के बक्सों जैसी! नहीं, निखिल' दा फ्लोरेंस के बारे में बयान करना मेरे वश में नहीं है। अगर कभी संभव हो, तो आप फ्लोरेंस देखने जरूर आएँ। यह शहर अगर नहीं देखा, तो जिंदगी पूरी नहीं होती। फ्लोरेंस के लोग-बाग भी असाधारण हैं। जिनके साथ हर रोज ही लंच-डिनर पर मेरी बातचीत हुई है, उन लोगों का वश चले तो वे मेरे लिए जान दे दें। एलिजाबेथा ने तो अकेले ही, दो लाख लीरा का मेरा टेलीफोन बिल अदा कर दिया। मेरा जो-जो खरीदने का मन हुआ, बिल उसी ने चुकाया। उसने मेरी दोनों हथेलियाँ भर दी। मुझे एक पैसा खर्च नहीं करने दिया। अब मैं फ्लोरेंस दुबारा कब आऊँगी, इस बात को लेकर आग्रह-अनुग्रह किए जाते रहे। फ्लोरेंस कॉन्फ्रेंस सिटी हॉल में आयोजित हुआ था। मैं उस शहर में दो दिन रही। आखिरी दिन, सिर्फ एमनेस्टी फ्लोरेंस के ढाई सौ इतालवी ही नहीं, फ्लोरेंस के पड़ोस के सिटी मेयर और फ्लोरेंस के मेयर, पार्लियामेंट ने मुझे समवेत् रूप से रिसेप्शन दिया और मेडल तथा उपहार भेंट किए। तासकुनिया-कई-कई सिटी को मिलाकर, एक बड़ा क्षेत्र, जिसमें फ्लोरेंस भी एक सिटी है, उसके प्रेसिडेंट ने मेरा अभिनंदन किया। एक मेडल भी प्रदान किया। नाजी-विरोधी एक मेडल!

अगले दिन ट्रेन से मैं रोम के लिए रवाना हुई। सभी लोग स्टेशन तक मुझे छोड़ने आए। मुझे विदा करते हुए वे लोग लगभग रुआंसे हो आए थे। रोम की तस्वीर बिल्कुल अलग थी। पुलिस की खामखाह अतिशयता, एमनेस्टी के सारे कार्यक्रम बदल दिए गए थे। होटल, कन्सर्ट, एअरलाइन, समय! पिस्तौल की ट्रिगर पर उँगली रखे। पुलिस हर वक्त मेरे साथ थी। हुआ यह था कि एमनेस्टी को बांग्लादेश दूतावास से फोन मिला था कि इटली में रसे-बसे कुछेक बांग्लादेशी मुझसे मिलना चाहते हैं। एमनेस्टी ने ये सारी खबरें सरकार को दी। मंत्रालय से मेरा पहरा और कड़ा कर
देने का हुक्म जारी किया है। खैर, रोम में वेटिकन से लेकर, रोम की सभी अहम् जगह मैंने देख डाली। म्यूजियम देखने का मौका नहीं मिला। फ्रांसिस्को, इतालवी एमनेस्टी की प्रेसिडेंट बेहद प्यारी महिला हैं। उन्होंने मेरा काफी आदर-सत्कार किया। उन्होंने बताया कि बहुत जल्दी ही वे मुझे रोम की नागरिक घोषित करने वाली हैं। कार्यक्रम! यह सब निवटाकर जब मैं वापस लौट रही थी तो कई एक बांग्लादेशी लोगों पर नजर पड़ी। वे लोग चश्मा, माला वगैरह बेच रहे थे। उनमें एक बंगाली भी था। उसने आगे बढ़कर मेरा ऑटोग्राफ लेने की कोशिश की, लेकिन पुलिस ने उसे धक्का मारकर गिरा दिया। मुझे उन पर कुछ-कुछ तरस ही आया।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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