जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
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कोई गुमशुदा खत अगर अचानक हाथ लग जाए? वह खत लिए-लिए मैं देर तक बैठी रही। उस वक्त वह खत, खत नहीं रह गया था, विल्कुल तस्वीर जैसा बन गया था! ऐसा ही एक खत! एक अधूरा खत, कागजों के जंगल में, अचानक हाथ आ गया! वह खत कुछ यूँ था-
...कितना कुछ घट गया है, आपको कुछ बताने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है। डी एच एल के जरिए दो महीने में दो पन्नों का खत भेजकर जिंदगी की सारी जानकारी दी भी नहीं जा सकती। फोन या फैक्स में मैंने देखा है, लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं और कोई काम जैसा काम नहीं होता। वैसे बेकाम का काम ही मेरा असली काम है। आपसे मेरे दिल की अंतरंगता, सबसे ज्यादा है और आप ही से मेरी भेंट-मुलाकात सबसे कम हुई है। जाने कितनी ही वार, मेरे मन में यह तीखी चाह जगी है कि आपको उठा लूँ और समूची दुनिया की सैर करूँ, लेकिन आप तो जैसे बरगद के पेड़ की तरह कलकत्ते में ही जड़ें गाड़कर जम गए हैं।
आजकल मेरे बारे में हलचल-हंगामा काफी हद तक कम हो गया है। स्वीडन में भी अब पुलिस की पहरेदारी हट चुकी है। अब मैं अकेली-अकेली ही ट्रॉम-वसों में सवार होती हूँ, सड़कों पर घूमती-फिरती हूँ। पूरे साल-भर पुलिस की पहरेदारी में रहकर जितना कुछ जाना है? अकेले-अकेले रहकर कुल सात दिनों में उससे कहीं
ज्यादा जानकारी बटोर ली है। इस जिंदगी का स्वाद बिल्कुल अलग किस्म का है। अब मैं खुद को चिड़िया जैसी नहीं, इमारत जैसा महसूस करने लगी हूँ। वैसे इंसान का भोग-दुर्भोग का बोझ उठाकर चलने में खुशी भी तो कम नहीं होती। दो दिनों वाद, इटली जा रही हूँ। सरकार ढेरों पुलिस देना चाहती थी, लेकिन मैंने मना कर दिया। मैंने कहा, मुझे उनकी जरूरत नहीं है, लेकिन कौन, किसकी वात सुनता है? ये लोग या तो निरं वुद्ध हैं या जरूरत से ज्यादा चालाक ! जून में मुझे ब्रसेल्स भी जाना है। वहाँ यूरोपियन पार्लियामेंट का एक कार्यक्रम है। पिछली बार वेल्जियम में चार गाड़ी पुलिस थी। समूचे एयरपोर्ट में वर्दीधारी सिपाही वंदूक लिए पहरे में तैनात थे। मेरे पहुँचने पर दुवारा यही सब इंतज़ाम किया जाएगा, यह ख्याल आते ही वेहद उलझन होने लगती है। मैंने जर्मनी वालों से कह दिया है, मुझे पुलिस की जरूरत नहीं है। उन लोगों का जवाब है कि तुम्हें पुलिस की भले जरूरत न हो, लेकिन तुम्हें पुलिस देना जर्मन सरकार के लिए जरूरी है। खैर, पुलिस का किस्सा-कहानी तो बहुत हुआ।
अब एक लेस्वियन की कहानी सुनाऊँ-एक रैडिकल लेस्बियन फेमिनिस्ट है। कनाडा की लड़की! फ्रांकोफोन, क्यूबेक में जन्म हुआ। अब पैरिस में रहती है। पैरिस में मेरी जितनी भी जनसभाएँ हुईं, मुझे वह हर कार्यक्रम में पहली कतार में नज़र आई। वह बेहद अच्छे-अच्छे सवाल करती थी। पुलिस का घेरा लाँघकर किसी से बात करने का मेरे पास कोई उपाय नहीं था। इसके बावजूद अपनी आखिरी मीटिंग में कुछेक सेकंड उससे बात हुई। उसी खुशी में एक दिन वह स्टॉकहोम चली आई। सात दिन वह मेरे ही घर में रही। इस बार वह फिर आई और पंद्रह दिन मेरे यहाँ ही रही। बेहद प्यारी लड़की है। नारी-स्वतंत्रता के बारे में मेरी जो सोच है। उसकी भी वही है, बल्कि एक काठी और आगे है। पुरुपतंत्र के खिलाफ लेस्बियनिज्म, उसके लिए राजनैतिक संघर्ष है। इस बारे में उससे घंटों बहस होती रही। मैंने उसके विचार पूरी तरह मान लिए, ऐसा भी नहीं है। पश्चिम में मिलिटेंट फेमिनिस्ट आंदोलन मार खा चुका है। लेस्वियन भी मुसीबत में हैं। अभी पिछले ही दिनों कई गे यानी समलैंगिक मर्दो और लेस्वियन औरतों को ब्रिटेन की फौज की नौकरी से निकाल दिया गया। पश्चिम में 'एक्सट्रीम राइट विंग' धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहा है; फ्रांस में 'लिपेन' को पंद्रह प्रतिशत वोट मिले। यह कुछ कम वोट नहीं है। 'स्किन हेड' बढ़ रहा है, निओ नाज़ी भी विस्तार पा रहा है, ये लोग एमिग्रेट हैं! उत्प्रवासी! होमोसेक्सुअल और नारी-स्वाधीनता के खिलाफ हैं! मैंने पश्चिम की अच्छाइयाँ भी देखी हैं और बुराइयाँ भी! प्रतिवाद भी करती हूँ! प्रतिवाद क्यों न करूँ, भला बताइए! इंसानों के लिए कोई सीमा क्यों कायम हो? अब, मैं सरहद और सीमा, दोनों ही छोड़ती जा रही हूँ। मेरी माँ कहा करती थीं, "तू सीमा से आगे बढ़ रही है। अभी भी होशियार हो जा!' मैंने जिंदगी में यही काम, कभी नहीं किया। मैं कभी होशियार नहीं हुई। असल में, लिखने से ज़्यादा मैं जिंदगी में छोटी-से-छोटी आज़ादी में ही ज़्यादा मगन रही हूँ, वरना आप ही बताएँ कि बांग्लादेश जैसे देश में एक अकेली लड़की किराए पर घर लेकर अकेले-अकेले कैसे रह पाती? मैंने किसी की परवाह न करके ऐसे-ऐसे काम किए हैं, जिसे समाज बिल्कुल भी बर्दाश्त नहीं कर सकता।
मैं इटली से वापस लौट आई। अब मैं ट्रेन से बर्लिन की राह पर हूँ। मैंने ट्रेन से ही जाना तय किया, क्योंकि प्लेन मुझे असहनीय लगने लगा है। मेरे पास प्लेन का भी टिकट था। इसके बावजूद मैंने बड़े शौक से ट्रेन का टिकट खरीद लिया। यहाँ की ट्रेनें भारत या बांग्लादेश की ट्रेनों जैसी नहीं होतीं। यहाँ तो ट्रेन में लगता है, जैसे मैं पाँच-सितारा होटल में बैठी होऊँ। असली आनंद तो है, खिड़की किनारे बैठकर प्रकृति का रूप निहारना। वैसे सिर्फ वादल देखना, सिर्फ शून्यता देखना, मुझे भला नहीं लगता। मुझे अगर हवाई जहाज के फर्स्ट क्लास का टिकट दिया जाए और जैसी-तैसी ट्रेन का भी टिकट दिया जाए तो मैं ट्रेन का टिकट ही कबूल करूँगी, लेकिन मुश्किल यह है कि मुझे यह विकल्प कोई नहीं देता।
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