जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैंने आन्तोनेला से कहा, "सुनो, तुम दोनों भी मेरे साथ चलो न! अगर मरना है, तो संग-संग ही मरेंगे।"
जब वे दोनों औरतें मेरे साथ गाड़ी में सवार होने लगी, उन दोनों छोकरों ने कड़ककर मना कर दिया। मेरे अलावा वे और किसी को भी अपनी गाड़ी में बिठाने को तैयार नहीं थे। आखिरकार उन दोनों औरतों को दूसरी गाड़ी से आना पड़ा। बे-चा-री! समूचे रास्ते-भर वे दोनों छोकरे अजब-अजब कांड करते रहे। सड़क पर कहीं, कोई ट्रैफिक जाम नहीं था, फिर भी वे दोनों पों-पों हॉर्न बजाते हुए, आकाश-बाताश को कंपाते हुए, दो सौ किलोमीटर की रफ्तार से गाड़ी दौड़ाते रहे।
मैंने पूछा, “तुम लोग यूँ बेतहाशा दौड़ क्यों लगा रहे हो? मुझे कोई जल्दी नहीं है।"
लेकिन कौन किसकी सुनता है? उन दोनों को एक अक्षर भी अंग्रेजी नहीं आती थी। वैसे भी, अगर आती भी तो मुझे नहीं लगा कि वे मरी बातों पर कान देते। गाड़ी विल्कुल किनारे-किनारे, पेड़-पौधों से घिरे रास्ते से होकर आगे बढ़ती रही और एक छोटे-से होटल के सामने पहुँचकर रुक गई। मेरे लिए होटल का कमरा पहले से ही तैयार था। चावी लेकर मैं ऊपर, दूसरी मंजिल पर चली गई। मेरे पीछे-पीछे वे दोनों छोकर भी ऊपर आ धमके।
कमरे की तरफ जाते-जाते मैंने उनसे दरयाफ्त किया, “अच्छा, यहाँ माफिया की क्या स्थिति है, बताओ तो?''
अंग्रेजी न समझने के बावजूद, 'माफिया' शब्द वे दोनों समझ गए। उनके चेहरे पर रहस्यमय हँसी झलक उठी। उन्होंने धाराप्रवाह जो कुछ कहा और हाथ-पैर नचा-नचाकर जो समझाने की कोशिश की, मेरे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ा। मेरे लिए जा कमरा बुक किया गया था, मैं उसी तरफ बढ़ चली। कमरे में मेरे दाखिल होने से पहले, वे दोनों छोकरे अंदर घुस गए। हाथ में पिस्तौल थामे, उन दोनों ने दीवार से सटे-सटे, पूरे कमरे का मुआयना कर डाला। जैसे कमरे में कोई आततायी छिपा बैठा हो। उनका कांड-कारखाना देखकर मुझे हँसी भी आती रही और गुस्सा भी! उन लोगों ने वाथरूम, बरामदा, बिस्तर के नीचे, अलमारी के अंदर झाँककर अच्छी तरह मुआयना किया। पता नहीं वे लोग क्या खोज रहे थे। उन दोनों को बाहर निकालकर, मैंने कमरे का दरवाजा बंद करके सिटकिनी लगा ली और राहत की साँस ली। बरामदे में खड़े होकर सामने लहराते हुए भूमध्य सागर को निहारते हुए मेरा मूड चंगा हो गया। चौदह-पंद्रह वर्ष की उम्र में कोई किशोर जैसे अचानक अपने माँ-बाप के कद से भी ज्यादा लंबा हो जाता है, बिल्कुल उसी तरह समुंदर के अंदर से पहाड़-शिखर यूँ लहककर सिर उठाए हुए, मानो अभी ही आसमान छू लेंगे। किसी अतल और अनंत के सामने खड़े होकर किसके मन में उमंग नहीं उठती? पानी के छींटों ने सहसा उछलकर एक जवा फूल को भिगो दिया। चट्टानों की दरार में जवां फूल खिला हुआ! मैं अचरज में पड़ गई। कितने-कितने अर्से बाद मैं जवा फल देख रही थी। मेरी नानी के घर के अलावा, जवा फूल कहीं और भी खिलता है, जैसे मुझे इसका अंदाजा ही नहीं था। मेरी आँखों के आगे हहराती हई यादों की भीड लग गई। हम नंग-धडंग बच्चे पोखर में धंसकर, जवा फूल तोड़-तोड़कर लहरों की धार पर उछाल देते थे! अब, कहाँ वह शैशव! कहाँ नानी के घर के पोखर-तलैया। भूमध्य सागर के तट पर खड़े, अकेले इंसान के जीवन से, वे तमाम दृश्य काफी दर जा चुके हैं! अब चाहकर भी उन्हें छुआ नहीं जा सकता। हद से हद हाथ बढ़ाकर सिर्फ आँखों के आँसू भर ही छू सकती हूँ।
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