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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


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“कहाँ जा रही हो?"

"सिसिली!"

"सिसिली? क्यों, सिसिली क्यों?"

सवाल में इतना विस्मय था कि मैं भी भड़क गई। अरे, दुनिया में जाने के लिए कहीं जगह की कमी है? मामला कुछ ऐसा ही है। जो इटली की सैर करने जा रही है। वह रोम, फ्लोरेंस, वेनिस न जाकर, पहले सिसिली जाए, ऐसा शायद
कोई सोच भी नहीं सकता।

लेकिन मैंने उन लोगों को आश्वस्त किया, "नहीं भाई, सिर्फ सिसिली तक जाकर लौट नहीं आऊँगी। दक्षिण से उत्तर की तरफ भी जाऊँगी। मतलब पूँछ पकड़कर सिर तक चढ़ने जैसा।"

"धत्त्! कोई शरीफ इंसान भला वहाँ जाता है? उस माफिया के देश में!"

मेरे यार-दोस्त, मेरे जाने के दिन, सुबह तक नाक-भी चढ़ाकर पूछते रहे, “एइ, सच्ची? तुम क्या सचमुच वहाँ जा रही है?"

"सचमुच नहीं तो क्या झूठमूठ?"

आलिटालिया विमान, पालेरमो हवाई अड्डे पर, 'भो-काट्टा' पतंग की तरह लुढ़कता-पुढ़कता धरती छूने लगा। यात्री हड़वड़ाकर उतरने लग! जैसी-तैसी पोशाक! सिर के वाल निकष काले! बदन का बादामी रंग! अचानक मुझे लगा मैं दक्षिणी एशिया के किसी देश में उतर पड़ी हूँ। वे लोग वेहद अपने-अपने लगे। लंबे अर्से से सुनहरे वाल और गोरी चमड़ी देखते-देखते, मेरी आँखें थक चुकी हैं। मैं आगे-आगे चल पड़ी। अचानक दो छोकरे मेरे सामने आकर खड़े हो गए। एक के बाल पीछे की तरफ सँवारे हए! बदन पर जीन्स और रंग जली जकेट! दूसरे के बदन पर अधमैली-सी टी-शर्ट। वह भी गर्दन के पास फटी हुई! मेरी छाती धक्क से रह गई। मानो भरी हुई कलसी उलट गई हो। कहीं ये दोनों माफिया के आदमी तो नहीं हैं? ये दोनों ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी निगाहों से क्यों घूर रहे हैं? उन दोनों छोकरों ने इतावली भाषा में मुझसे कुछ कहा। पता नहीं क्या कहा! बिना एक पल भी रुके, मैं उन दोनों से कतराकर, तेज-तेज चाल से आगे बढ़ी और भीड़ में शामिल हो गई। भीड़ में गुम होकर मेरे दिल की धुपुक जरा संयत हुई। कुछेक पल बाद, मैंने चोर-निगाहों से पीछे मुड़कर देखा। वे दोनों बिल्कुल मेरे पीछे-पीछे चल रहे थे। वाकई, यह तो भयंकर मुसीवत आन पड़ी। मैं दाहिने बढ़ी, तो वे दोनों भी दाहिने हो लेते; मैं बाएँ मुड़ी, तो वे दोनों भी बाएँ! अपने को छिपाने के लिए मुझे बचपन में खेली गई आँखमिचौनी का खेल इस वक्त भी खेलना पड़ा, लेकिन वे दोनों इतने चतुर निकले कि बार-बार मुझे खप् से पकड़ लेते। एक लोकोक्ति है, मुश्किल-आसान!

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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