जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इसी तरह एक दिन कैटालान पेन क्लब ने मुझे डिनर की दावत दी। वहाँ कैटालान लेखकों के साथ वेहद प्यारी-सी रात गुज़री। स्कैंडिनेविया में रात का खाना, शाम पाँच बजे ही खा लेते हैं और लंच ग्यारह-बारह बजे करते हैं। स्पेन में गर्म देशों की तरह रात का खाना रात को ही खाते हैं। इसीलिए स्पेन मुझे काफी हद तक अपना देश लगता है। यहाँ के लोग भी काफी अंतरंग हो जाते हैं और बेहद खुशमिजाज होते हैं। वार्सेलोना में जाने-पहचाने पेड़, खासकर खजूर और मणिमनसा के पेड़ देखकर मन गद्गद हो आया। कितने दिन हो गए। मैंने अपने देश के पेड़-पौधे नहीं देखे। मेरे वापस लौटने से पहले रात डेढ़ बजे तक रेस्तराँ में ही अड्डेवाजी जारी रहे। मेरा स्पैनिश अनुवादक खासा मोटा-मुटल्ला है। उसने अफ्रीका की किसी लड़की से शादी की है।
गर्मी में आकर अपने घर ठहरने की दावत देते हुए उसने कहा, “उस वक्त एशिया, अफ्रीका और यूरोप का महामिलन होगा। गर्मी में आना जरूर! नो पुलिस, नो होटल, नो इंटरव्यू, नो लेक्चर-अच्छे-खासे इंसान की तरह जिंदगी गुजारना! ठीक है?"
दरअसल अर्से से मैंने इंसानों जैसी जिंदगी नहीं बिताई। पिछली अगस्त में, मैं यूरोप आई थी, लेकिन आम इंसान जैसे चलना-फिरना हुआ ही नहीं। हर वक्त मुझे शहंशाहों जैसा रखा जाता है, जबकि सच तो यह है कि मैं नितांत निरीह प्रजा हूँ। मैं तो दाल-भात खाने वाली इंसान हूँ। सर्दी के मौसम में माँ से धनिया-पत्ती डालकर, मागर मच्छी का शोरवा पकाने की फरमाइश किया करती थी। मैं तो आज भी वैसी ही हूँ। आजकल माँ का चेहरा वेहद मेरी आँखों में तैरता रहता है। पिकासो ने अपने छुटपन की उम्र में, अपनी माँ का चेहरा चित्रित किया था। उन दिनों पिकासो की तस्वीरों के नीचे उनका दस्तखत भी हुआ करता था-पाब्लो रूइज़ पिकासो। पिकासो उनकी माँ की पदवी थी। पिकासो सन् 1895 से 1904 तक वार्सेलोना में रहे। मेरी उम्र उनकी उस वक्त की उम्र से बहुत ज्यादा है। पिकासो की तरह ही मैं भी निःसर्ग सौंदर्य पर मुग्ध होती हूँ। मेरी भी प्यास नहीं मिटती। पिकासो की तरह मैं रंग-तूलि लेकर नहीं बैठ पाती, लेकिन मेरे मन के भीतर जो कैनवास है, उस पर मेरी आँखों का सियाह रंग, जिंदगी और जहान की ढेरों तस्वीरें आँकता रहता है।
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