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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


इस धर्ममुक्त मानववादी संगठन में कुल साठ हज़ार सदस्य हैं! उन लोगों ने देखा है कि सिर्फ धर्महीनता के बारे में वक्तव्य देने से इंसान आकर्षित नहीं होता। हीनता का मामला ही नेतिवाचक है। आस्तिक को नास्तिक बनाने के लिए, कुछेक उत्सवों का आयोजन ज़रूरी है। इंसान उत्सव चाहता है। आनंद चाहता है। ईसाइयों के लिए बड़ा दिन है, ईस्टर है, गुड् फ्राइडे है। इसके अलावा अन्य शानदार उत्सवों का भी इंतज़ाम है! लेकिन धर्महीन लोगों के लिए कोई उत्सव नहीं है। धर्म को निष्कासित करने की इच्छा-भर व्यक्त करके, सिर्फ बैठे-बैठे अंगूठा चूसने से हो नहीं चलेगा। ऐसी स्थिति में धर्म छोड़कर कोई, कहीं नहीं जाएगा, लेकिन कुछ लेने के लिए कुछ देना भी पड़ता है। इंसान त्याग करने को तभी-तभी आग्रही होता है, जब कुछ पाने की संभावना हो। धर्म के उत्सव का अगर त्याग कर दें तो बदले में इसी किस्म का शानदार कोई उत्सव, धर्महीन गोष्ठी क्या नहीं दे सकती? लेकिन नहीं दे पाई। चूँकि वह ऐसा कुछ नहीं दे पाई, इसीलिए इंसान की आस्था अर्जित नहीं कर पाई, इसीलिए वह जी-जान से इस कोशिश में जुटी है कि धर्महीनता को आप इंसान के लिए ग्रहण योग्य बना दें और ग्रहण योग्य बनाने के लिए उत्सव चाहिए। इसीलिए उत्सव का आयोजन किया जाने लगा है। जो पंद्रह हज़ार किशोर-किशोरी गिरजाघर के बजाय मानववादी उत्सव में कन्फर्मेशन के लिए आए थे, स्वस्थ-सुंदर सांस्कृतिक-दार्शनिक आनंद में लिप्त हो उठे थे, उनमें नब्बे प्रतिशत पूर्वी जर्मनी के थे और दस प्रतिशत पश्चिमी जर्मनी के। कम्युनिस्ट शासनकाल में पूर्वी जर्मनी में चूँकि नास्तिकता विराज करती थी, इसलिए लोग स्वाभाविक तौर पर नास्तिक थे, लेकिन पश्चिमी जर्मनी के लोगों में इस किस्म की नास्तिकता नहीं है कि युग-युगों से गिरजाघरों में ईसाई धर्म के मुताबिक कन्फर्मेशन का जो रिवाज प्रचलित रहा है, उससे इंकार कर दिया जाए। इंसानों को नास्तिकता में सिर्फ दीक्षित करने-भर से काम नहीं चलेगा, उन लोगों को चंद उत्सव भी देने होंगे, कोई विकल्प भी देना होगा। इसीलिए कन्फर्मेशन के बदले अधर्म-उत्सव दिया गया। गिरजाघर में जाकर धर्म के मुताबिक विवाह करने के बजाय अधर्म के मुताबिक विवाह-व्यवस्था भी शुरू की गई। यह व्यवस्था भी मानववादी सेकुलर संगठन ने ही आरम्भ की। यह व्यवस्था अब सिर्फ जर्मनी में ही नहीं, नॉर्वे, स्वीडन और अन्य कुछेक देशों में चल निकली है। अव ढेरों नास्तिक औरतें-मर्द, गिरजाघरों में न जाकर, धर्मगंधमुक्त सांस्कृतिक परिवेश में विवाह-अनुष्ठान आयोजित करने लगे हैं। ऐसे आयोजन में कोई पादरी नहीं होगा, कोई मानववादी शख्स विवाह की घोपणा करेगा, ईश्वर को साक्षी रखकर नहीं, खून-मांस के इंसान को साक्षी बनाकर! मंत्र पढ़कर नहीं, प्रेम की कविताएँ पढ़कर! लेकिन अभी भी सबसे विराट उत्सव, क्रिसमस या बड़े दिन का कोई विकल्प नहीं मिल सका है। 25 दिसंवर, ईसा मसीह का जन्मदिन नहीं है। ईसू का सच्चा जन्मदिन, ईसा पूर्व 6 की 15 मई को पड़ता है। यानी ईसा मसीह के जन्म से 6 वर्ष पहले उनका जन्म हुआ था। 25 दिसंवर को तो आदिवासियों का उत्सव मनाया जा रहा था। कड़कड़ाती सर्दी में और घोर अँधेरे में, सूर्य देवता की गुहार लगाई जाती थी, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है, इंसान के दिमाग में जो गड़ गया, सो गड़ गया। 25 दिसंबर का इतिहास वयान करने के बावजूद किसी को कुछ फ़र्क नहीं पड़ता, लेकिन अगर संभव हो तो ऐसे ही किसी विराट उत्सव का आयोजन करने में दोष क्या है? लोग बड़े दिन के बजाय उसी दिन को मानने लगेंगे।

बर्लिन का वह दल मेरा घनिष्ठ हो उठा। यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के सभी मानववादी दल, एक तरह से मेरा घर-द्वार बन गए। अमेरिका के 'सेंटर फॉर फ्री इंक्वायरी' की मेहमान वनकर मुझे वफेलो जाना पड़ा। वहाँ ‘इंटरनेशनल अकादमी ऑफ ह्युमैनिज़्म' से 'ह्युमेनिस्ट लॉरिएट' की उपाधि कबूल करना पड़ी। सर इसाहया वर्लिन, सर हरमन वॉन्डी, रिचार्ड डकिनस, हर्बर्ट इप्टमैन, फ्रांसिस क्रीक जैसे विख्यात वैज्ञानिक, चिंतक और नोवेल लॉरिएट के साथ अपना नाम? मुझे भरोसा नहीं हुआ। मुझे फ्री इंक्वायरी पत्रिका की सीनियर एडीटर नियुक्त किया गया। मानववादी दल के आमंत्रण पर मैसाचुसेट्स जाना, हरवर्ट विश्वविद्यालय में व्याख्यान देना, लंदन, एमस्टरडम, रोम, लॉस एंजेलेस और अन्य शहरों में सेकुलरिज्म की ज़रूरत पर व्याख्यान देने का आमंत्रण! मैं क्या बड़े-बड़े तात्विक-विशेषज्ञ, तार्किक-विशेषज्ञों से भी बढ़कर हूँ? मुझे इतना महत्त्व क्यों दिया जाता है? मेरे लिए दर्शक-श्रोताओं की इतनी ज्यादा तालियाँ क्यों होती हैं? वजह एक ही है। जो लोग तथ्य-तत्व आधारित, ज्ञानगंभीर वक्तव्य देते हैं, नई दिशा की ओर निर्देश करते हैं, वे चाहे जितने भी बड़े, कितने भी महान् क्यों न हों, उनमें से किसी को भी, उतना कुछ नहीं झेलना पड़ा, धर्म के विरुद्ध बोलते हुए, उन लोगों को उतना नहीं झेलना पड़ा। उन लोगों में से किसी को भी अँधेरे धर्माध समाज में रहकर, धर्मवादियों के विरुद्ध जंग का ऐलान नहीं करना पड़ा। मेरी जिंदगी के तजुर्गों की वजह से ही लोगों ने मुझे सर्वोच्च आसन पर बिठा दिया है। पश्चिम के लोग तात्विक बातें सुनते-सुनते, अब काफी थक चुके हैं। अब वे लोग खून-मांस का हीरो चाहते हैं। हीरो की जुबानी वे लोग तत्व-ज्ञान की बातें नहीं सुनना चाहते, हीरो की जीवन-कथा सुनना चाहते हैं। यही सब उनके लिए ज़्यादा जीवन्त है। उनके पास दूसरों के अहसास को महसूस करने वाला दिल है। हाँ, वे लोग यही चाहते हैं। जबकि पूर्व के लोग तत्व-ज्ञान सुनकर ही मुग्ध हैं।

उन लोगों के लिए व्यक्तिगत तजुर्बों की अब अति हो चुकी है। अब वे लोग शहरी वनना चाहते हैं! अव उन लोगों में नागरिक बनने की तीखी चाह जाग उठी है-ऐसे में ग्राम्यता पार करके, नागरिकता भी पार करके, हाई-टेक के देश में, सब कुछ प्राप्ति के देश में, दिमाग का बोझ, काफी बड़ा बोझ बन गया है; तत्वों और तथ्यों से हँसा हुआ दिमाग एक बारगी गड़बड़ा गया। हरे कृण्ण-हरे राम में, बौद्ध धर्म में, पूर्वी संस्कृति में, हिप्पीइज़्म में, इस्लाम स्वीकृति में, वाहमियनिज़्म में 'वैकलैश' यानी पतन हुआ और अव उन लोगों के दिमाग में खाली-पीली दर्शन, सिर्फ युक्ति समा नहीं रहा है। चारों तरफ जोर-शोर से आवाजें प्रतिध्वनित हुईं-रुको! अव, रुक जाओ, तथाकथित सर्द सभ्यता! रुक जाओ, यंत्र! रुक जाओ, मशीन! थमो, थम जाओ, पिशाच! अव, कुछ दिल की वात करो! अर्से से दिल की बात नहीं हुई।'

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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