जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
अलजीरिया में कट्टरवादी लोग लेखक-पत्रकारों की जान ले रहे हैं। अब मुझे आवाज़ उठानी ही होगी। वेल्जियम में शिशु-बलात्कार की संख्या बढ़ती जा रही है, विरोध की ज़रूरत है। अमेरिका में ईसाई कट्टरवादी गर्भपात के खिलाफ़ चीख-पुकार मचा रहे हैं। इन कट्टरवादियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ना ही होगा। आंदोलन यानी लिखना, सभा-समिति, भाषण आदि। भाषण के नाम पर अपने देश की जो तस्वीर आँखों के सामने झलक उठती है, वह है, मैदान में एक ऊँचा-सा मंच! सामने असंख्य लोग! मंच और श्रोताओं के वीच काफी सारा फासला! मंच पर वक्ता के सामने माइक! चीख-चीखकर भाषण करना! धाराप्रवाह वक्तव्य! झट से एक प्रसंग से दूसरे प्रसंग में कूद पड़ना! वक्तव्य में उत्तेजक शब्द! लोगों की तालियाँ बटोरने वाले जुमले! यानी वनावटी बातें! अधिकांश दर्शक-श्रोता ज़वरन खींचकर लाए हुए! किराए पर जुटाए हुए! वे लोग आपस में फिजूल की बातचीत में मगन! कोई-कोई भाषण सुनता है, अधिकांश नहीं सुनते और अधिकांश समझते भी नहीं। पश्चिम में भाषण का तरीका विल्कल अलग होता है। राजनैतिक भाषण भी मख्य रूप से मैदानों में नहीं होते, बल्कि चारदीवारी के भीतर होते हैं। लिखित भाषण! भाषण के बाद प्रश्नोत्तर! बहस-मुवाहसे! तरह-तरह के मंतव्य! उत्साही दर्शक-श्रोताओं की भीड़! मैं कोई राजनीतिक प्राणी नहीं हूँ। राजनीति समझती भी कम हूँ, लेकिन मैंने देखा है कि मेरे वक्तव्यों को पश्चिम में राजनैतिक वक्तव्य मान लिया जाता है। मैं सामाजिक परिवर्तन की बात करती हूँ। हाँ, जी, यही तो राजनीति है। समाज, समाज जैसा ही बना रहे, बना रहने दो! तुम्हें सिरदर्द क्यों है? जब तुम्हें सिर-दर्द हुआ है, जैसे ही तुमने जुबान खोली, विल्कुल उसी पल, तुम राजनीति में दाखिल हो जाते हो!
बहरहाल हमारे शिमेल-विरोधी आंदोलन से कोई फायदा नहीं हुआ। ज़बर्दस्त आलोचनाओं के बावजूद एन मेरी शिमेल को पुरस्कृत किया गया। इस पुरस्कार के विरोध में समूचे जर्मनी में जिस दल की भूमिका सबसे बड़ी थी, वह था-जर्मन मानववादी संगठन ! उस दल के सभापति थे-क्रिश्चन जॉन! मेरे बर्लिन-निवास के शुरू-शुरू के दिनों में ही उनसे मेरी दोस्ती हो गई थी। क्रिश्चन, सूरत-शक्ल से, सिर से पाँव तक बुर्राक गोरा, सुनहरी चादर में लिपटा हुआ! सिर से पाँव तक सिर्फ बाल ही नहीं, भौंहें, आँखें, पलकें-सब कुछ सुनहरा! बदन का रोम-रोम तक सुनहरा! उसी सुनहरे क्रिश्चन और उसके संगठन ने मेरा अभिनंदन किया, मुझे फूलों और उपहारों से लाद दिया। उन लोगों ने मुझे नौका-विहार कराया और संगठन के नए रेस्तराँ का मुझसे उद्घाटन कराया। उस दिन मेरा जन्मदिन है, यह मुझे याद भी नहीं था, लेकिन उन लोगों ने अचानक मेरा जन्मदिन मनाकर मुझे सिर्फ चकित ही नहीं किया, बल्कि सुख के अनन्त-सागर में भाव-विहल भी कर दिया।
ईसाई लड़के-लड़कियाँ जब चौदह वर्ष के हो जाते हैं तो उनके यहाँ एक उत्सव मनाया जाता है। इस उत्सव का नाम है-कन्फर्मेशन! यह उत्सव गिरजाघर जाकर मनाया जाता है, लेकिन इस उत्सव को जर्मन मानववादी संगठन ने धर्महीन तरीके से मनाने का प्रयास किया। यही संगठन पिछले कई सालों से किशोर-किशोरियों की चौदहवीं वर्षगाँठ को इसी ढंग से मनाता रहा है। इस बार मुझे इस कार्यक्रम का प्रधान या विशेष अतिथि बनाया गया, ताकि इस अभिनव कार्यक्रम में शामिल होने वाले किशोर-किशोरियों को प्रेरित कर सकूँ! मैंने उन बच्चों का अभिनंदन किया और अपने वक्तव्य में कहा कि उन लोगों ने यह फैसला करके कोई गलती नहीं की।
यही मुक्ति की राह है। यही सच्चाई और स्वाधीनता की राह है। उत्सव में नास्तिकता और मानवता का जयगान किया गया। ह्युमेनिस्ट या मानववादी संगठनों का काम ही यही होता है कि वह धर्महीन राष्ट्र, समाज और शिक्षा का प्रवन्ध करें। जीवन से धर्म को दूर रखना, लेकिन यह आदर्श किसी पर लादा नहीं जाता, कोई अगर चाहे तो सदस्य वन सकता है। आजकल यह संगठन जर्मनी के सरकारी स्कलों में मानववाद पढ़ाने के लिए शिक्षक भेज रहा है। मानववाद पढ़ाते हुए सिर्फ मानववाद ही नहीं, दुनिया के तमाम धर्मों के बारे में ज्ञान-दान देता है। किशोर-किशोरियाँ सभी जातियों की आस्तिकता और साथ नास्तिकता के बारे में सम्यक ज्ञान लाभ करने के वाद चाहे जो भी विश्वास चुन ले, उन लोगों की अपनी-अपनी इच्छा को अहमियत देने के लिए ही यह इंतज़ाम किया गया है। वाकई दिमाग में संगत बुद्धि हो तो अपने-अपने लिए धर्म या धर्महीनता का, खुद ही चुनाव कर लेना चाहिए। इंसान को अपने माँ-बाप का धर्म ही क़बूल करना हो, यह क्या ज़रूरी है?
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