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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


अब उन लोगों को अपनी पोशाक-पहनावे से भी अरुचि हो गई है! उन लोगों से मेरा मतलब है-प्रकृति प्रेमी लोग! अपने घर से लगभग दो किलोमीटर दूर, यूँ ही चलते-चलते मैंने जो कुछ देखा, उस पर अपनी आँखों को ही भरोसा नहीं हुआ। सैकड़ों अधेड़-बूढ़े औरत-मर्द, लेक किनारे नंग-धडंग लेटे हुए या बैठे हुए! वे लोग धूप सेंकते हुए! धूप सेंकने का मंजर, मैंने पहले भी काफी देखा है। स्वीडन में भी, गर्मी के मौसम में मैं लेक-किनारे औरत-मर्दो को अधनंगे बैठे हुए देख चुकी हूँ। इटली, स्पेन, आयरलैंड, फ्रांस, स्कॉटलैंड, डेनमार्क वगैरह देशों में, समुद्र-तट, नदी-तट या लेक के किनारे. अनगिनत नंगी देह देख चकी हूँ! ज्यादातर तैराकी की पोशाक में! किसी-किसी के जिस्म का ऊपरी हिस्सा बिल्कुल उघड़ा हुआ! ऊपरी हिस्सा भले नंगा हो, निचला हिस्सा ढका रहता है। कम-से-कम पहले-दूसरे सभी लिंगों को ही, एहतियात से ढके रखने का एक अलिखित नियम तो था ही! बर्लिन में औरत-मर्द सभी पूरी तरह नंग-धडंग! अपने कच्चे-बच्चों के सामने माँ-बाप बिल्कुल नंगे! किसी के भी बदन पर सूत-भर भी नहीं! माइल-दर-माइल लोग! अनन्त मैदानों में लोग ही लोग! नहीं, यह कोई 'न्यूड क्लब' नहीं था। यहाँ किसी भी मैदान पर इंसान लेटे-लेटे या बैठे-बैठे या चलते-फिरते वक्त गुज़ार सकता है। नंग-धडंग लोग चल-फिर रहे हैं! यौनांग में जंगल ही जंगल! कोई किसी को पलटकर भी नहीं देखता! किसी औरत का उभार सत्त-कसा हुआ! किसी का ढलका हुआ! किसी का उभरता हुआ! किसी का खिला हुआ! पुरुषांगों के भी अजीब-अजीब आकार-आकृति! किसी का छोटा, किसी का मंझोला, किसी का ख़ासा हृष्ट-पुष्ट! वैसे उनकी तरफ देखना क्या आसान था? खुले पुरुषांग पर उन लोगों को कोई शर्म-संकोच नहीं था, शर्म तो मुझे आ रही थी! मैं चोर-निगाहों से देखती रही और अवाक् होती रही! चारों तरफ इतने-इतने स्तनों और योनियों की भीड़ में भी, कोई एक पुरुषांग, एक बार भी खड़ा नहीं होता। सारे पुरुषांग अद्भुत ढंग से सोये हुए! मानो मैं किसी स्वर्ग में आ पड़ी हूँ और ये सारे लोग देवी-देवता हों। बस, पीठ पर पंखों की कमी थी। औरत-मर्द लेटे-लेटे या बैठे हुए किताबें पढ़ते हुए! कोई-कोई दोपहर के लिए हल्का-फुल्का लंच ले आया था, टिफिन-डिब्बे से निकाल-निकालकर खा रहा था और आइसबैग से पानी पी रहा था या फ्लास्क से कॉफी पी रहा था। यूरोपवासी कड़ी कॉफी पीते हैं। कॉफी में दूध भी नहीं मिलाते। उत्तरी अमेरिका की कॉफी बिल्कुल अलग किस्म की होती है। दूध मिली हुई हल्की कॉफी, विशुद्ध यूरोपियन लोगों से पी ही नहीं जाती। यहाँ की कुछेक चीजें लोगों को बेहद पसंद हैं। कॉफी, चॉकलेट, चीज़ और यही तीनों चीजें मुझे निहायत नापसंद हैं। इन तीनों चीजों का नाम 'सी' से शुरू होता है। हाँ, तो मैं नंगपन के बारे में कह रही थी! उन नंग-धडंग प्रकृति-प्रेमियों के सामने नंग हुए विना भी, शायद कोई बैठ या लेट तो सकता है, लेकिन वह बेहद 'मिसफिट' नजर आता है। मैं ही बिकनी पहनकर काफी देर-देर तक वैठी रही हूँ, लेकिन उतनी-सी बिकनी भी इतनी भद्दी लगती रही कि वे लोग धिक्कार-भरी नज़रों से मुझे घूरते रहे। आखिरकार विकनी पहने रहने की लज्जा से और नंगी न हो पाने की शर्म से मुझे मैदान छोड़कर उठ आना पड़ा। गर्मी पड़ते ही, सर्वसाधारण के लिए सुलभ, किसी भी खुली-खुली जगह में, जब-तब सारे कपड़े-लत्ते उतार डालने का रिवाज़, एकमात्र बर्लिन में ही देखा है, जर्मनी की किसी और जगह ऐसा नहीं है। दुनिया में ऐसा, और कहीं नहीं है। फ्रांस, हॉलैंड, इटली से कई एक पत्रकार आए थे। धीरे-धीरे वे लोग मेरे दोस्त बन गए। घर से बाहर टहलते-टहलते मैंने यह दृश्य उन लोगों को भी दिखाया। वे लोग भी सन्न रह गए। उन लोगों ने भी कहा कि ऐसा अद्भुत दृश्य उन लोगों ने भी जिंदगी में कभी नहीं देखा।

बहरहाल बर्लिन के मैदानों में खुले आम दिन के उजाले में घूमते-फिरते या बैठे-लेटे हुए ये नंग-धडंग औरत-मर्द मुझे बिल्कुल भी अश्लील नहीं लगे। मुझे तो वे औरतें अश्लील लगती हैं, जो शोख-शोख रंग-रोगन पोते हुए, खूब सज-धजकर, छोटी-छोटी पोशाकें पहने, शाम के अँधेरे-उजाले के झुटपुटे में खड़ी रहती हैं। वे औरतें अपनी देह बेचने के लिए खड़ी रहती हैं। पूर्वी यूरोप की दरिद्रता ने उन औरतों को, पश्चिम बर्लिन की अली-गली, राजपथ, फुटपाथों पर लाकर खड़ा कर दिया है। मैं आँखें ढके रखती हूँ। राजनीति दरिद्रता और विषमता का जो नीला नक्शा रचती-गढ़ती है, उसकी शिकार हर देश में सिर्फ औरत ही होती है।

बर्लिन का कुरफुरस्टानडम रास्ते पर जाते-जाते, वह रास्ता मानो खत्म ही नहीं होता। स्टॅकविंकेल से काडेवे! इस ज़रा-से रास्ते के बीचोंबीच एक टूटा-फूटा गिरजा स्थित है। काफी मशहूर गिरजा है, क्योंकि दूसरे महायुद्ध के दौरान मित्र-शक्तियों ने इस गिरजे पर बम बरसाकर, इसे ध्वंस कर दिया था। वह गिरजा, अब एक यादगार बन गया है! वैडेवे, बर्लिन का गैलरी लाफायेत है, यानी खरीद-फरोख्त की जगह! जैसा नाम, वैसा दाम! बेहद खुश होने पर या बेहद दुःखी होती हूँ, बेहद खुशी या घुटन के दिनों में, मैं अपनी सारी खरीदारी काडेवे से ही करती हूँ। पानी की तरह रुपये-पैसे खर्च करती हूँ। अब मुझे अहसास होता है कि मुझे किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ता। धीरे-धीरे ही जिंदगी बेहद बेमानी हो उठी है। मेरा भी कहीं, कोई देश था, मेरी भी कहीं, कोई जिंदगी थी। जाहिर है कि अब यह बात किसी को याद नहीं। देश का कोई भी वंदा भूलकर भी मुझे खत नहीं लिखता। पुरस्कारों के रुपए, रॉयल्टी के रुपए-इतने सारे रुपए लेकर मैं कौन-से स्वर्ग जाऊँगी? स्वर्ग में अब, मेरा भरोसा नहीं रहा! मारे अभिमान के मेरी आवाज़ रात-दिन घुटती रहती है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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