जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मैं साहित्य-चर्चा के बजाय बर्लिन-चर्चा में मुखर हो उठी। क्रेयज़बर्ग के आतंकवादियों के दीवार-लेखन पढ़ने में ही मैं दिन गुज़ारती रही। क्रेयज़बर्ग जुलूस-सभाओं में उस्ताद है। जर्मन मजदूर, समलैंगिक, समता में आस्था रखने वालों के साथ मैं जुलूस-सभाओं में भी शामिल हुई। मुझे जानकारी मिली कि इसी बर्लिन शहर में महिलाओं ने जुलूस निकाले थे। जुलूस में हर महिला के बदन पर टी-शर्ट! टी-शर्ट पर जर्मन भाषा में लिखा हुआ था-मैं तसलीमा हूँ। उन्हीं दिनों मेरी फाँसी की माँग करते हुए, बांग्लादेश में हर रोज़, जुलूस निकल रहे थे। उन दिनों मेरे समर्थन में बांग्लादेश में कोई, कुछ नहीं बोला था! विदेश के लोगों ने ही मेरे पक्ष में ज़ोर-शोर से आवाज़ लगाई। यह सब सोचो, तो कितना अविश्वसनीय लगता है! यूरोप के विभिन्न देशों में विदेशी नारीवादी, मानववादी और कलाकार, साहित्यकारों ने वहाँ स्थित बांग्लादेश दूतावास के सामने विक्षोभ-प्रदर्शन किया। सिर्फ मामूली-सी टी-शर्ट ही नहीं, इसी जर्मनी में, किसी जर्मन प्रकाशन ने होयर, ब्रेख्त, हाइने, गेटे की उक्तियाँ लिखी हुई एक नीली टी-शर्ट तैयार की थी। पता नहीं, उन लोगों को मेरी भी उक्ति मिल गई थी। मेरी उकित लिखी हुई एक नीली टी-शर्ट, मेरे भी हाथ लगी। उस टी-शर्ट पर सामने के हिस्से में एक चेहरा और उसके नीचे के पूरे हिस्से में जर्मन भाषा में लिखा हुआ-“डिजे फारडमटे गेज़ेलशाफ्ट ग्लाज्वट भन मेइडशेन आउफ वयमे स्टाइगेन डान स्टिआरवट, डेयार वाउम।" -जिसका मतलब है, 'यह जघन्य संस्कार कहता है कि औरत जिस पेड़ पर चढ़ती है, वह पेड़ मर जाता है। इस उक्ति के नीचे मेरा नाम। टी शर्ट के पिछले हिस्से में दो आँखें और मेरा हस्ताक्षर! मुझे काफी खुश होना चाहिए था, विस्मय-विमुग्ध होकर उसे निहारते रहना चाहिए था। लेकिन वह टी-शर्ट भी आम टी-शर्ट की तरह पड़ी रही। जैसे किसी बात से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।
बर्लिन आने के बाद भी अनगिनत अभिनंदन और सम्मान का सिलसिला जारी रहा। सबसे पहले नारीवादी और मानववादी लोग टूट पड़े। इसके बाद धीरे-धीरे लेखक-परिवार हाज़िर हुआ। जर्मन दार्शनिक, ऐन मेरी शिमेल को शांति-पुरस्कार दिए जाने के खिलाफ जर्मन का लेखक समुदाय और मानववादी लोग बुरी तरह नाराज़ थे। नाराज़ दल में मुझे सबसे आगे रखा गया। जर्मन लेखक, पीटर स्लाइडर, मैं और कई अन्य लोगों के हस्ताक्षर इकट्ठा किए जाने का अभियान शुरू हो गया। बर्लिन के विशाल मंच पर प्रतिवाद-कार्यक्रम जम उठा। ऐन मेरी शिमेल को फ्रैंकफर्ट पुस्तक मेले में जर्मन सरकार की तरफ से शांति पुरस्कार से पुरस्कृत किया जाने वाला था। यह काफी बड़ा पुरस्कार था। जिन्हें यह पुरस्कार मिलना था, दुनिया में वे इस्लाम विशेषज्ञ के तौर पर जानी-मानी जाती थीं। शिमेल का विश्वास है कि इस्लाम शांति का धर्म है। उन्होंने प्रचार किया है कि मुसलमान औरतें यूरोपीय औरतों की तुलना में ज़्यादा सम्मान पाती हैं। उन लोगों को बहुत ज़्यादा आज़ादी प्राप्त है। मिसाल के तौर पर उन्होंने तुर्की, पाकिस्तान, ईरान का नाम लिया है। सलमान रुशदी और तसलीमा नसरीन को निहायत मूर्ख घोषित करते हुए उन्होंने कहा है कि इन दोनों को इस्लाम की कोई जानकारी नहीं है। औरतों के लिए पर्दा-प्रथा के समर्थन में उन्होंने काफी अच्छा-सा तर्क भी खोज निकाला है। इस्लाम का यह गुणगान जिन लोगों को पसंद नहीं आ रहा है, दरअसल वे इस्लाम-विरोधी नहीं थे। वे लोग किसी भी धर्म के विरोधी हैं। उन लोगों की राय में कोई भी धर्म, शांति का धर्म नहीं है। इस्लाम की वजह से औरतें अपने जायज अधिकार से वंचित हैं, यह ख़बर जानने के बाद, कौन विशुद्ध मानववादी इस्लाम का झंडा लहराने में आग्रही होगा? हम सबका मंतव्य था, धर्म का गुणगान करके, शांति पुरस्कार वसूल करना गलत है। सरकार ने कहा कि यह पुरस्कार, पश्चिमी और इस्लामी दुनिया से संपर्क को बेहतर बनाएगा। नहीं, संपर्क बेहतर बनाने का यह तरीका नहीं है। हमने साफ़-साफ़ बताया कि सभी कूपमंडूकता और कुसंस्कार को वाहवाही देकर समझौता करने का नतीजा अंत में अच्छा नहीं होता। धर्म और धर्मवादी, मौलवी इनमें से किसी के साथ भी समझौता, ज़्यादा दिनों तक नहीं टिकता! यह पुरस्कार शिमेल को देने का मतलव है, जो लोग धर्मनिरपेक्षता की बातें करते हैं, सेकुलरिज्म की बातें करते हैं, जो लोग धार्मिक संत्रास से समाज को मुक्त करना चाहते हैं, उन लोगों की बंद मुट्ठियाँ खूब अच्छी तरह, खूब ज़ोर से मचीड़ दना। जाहिर है कि जर्मन सरकार ने इस्लाम से समझौता किया है। ऐसा उसे इसलिए करना पड़ा, क्योंकि इस्लामी दुनिया से उसका तरह-तरह का लेन-देन जुड़ा हुआ है।
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