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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


हाँ, मेरे हाथों में जैसे वर्लिन का चाँद आ गया। ख़ासकर हर वक्त की सुरक्षा के खात्मे के वाद! अपनी इस वेवजह की जिंदगी में सैकड़ों पहरेदार मैं बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। मुझे बखूबी अहसास है कि मेरी हत्या के लिए, कोई, कहीं घात लगाए बैठा हुआ है। किसी वक्त मेरा खून करने के लिए, जो लोग पगला उठे थे, अब तो वे लोग भी धीरे-धीरे मुझे भूल चुके हैं। वक़्त कितना कुछ बदल देता है, तो क्या अब मैं अपने देश लौट सकती हूँ? हाँ, लौट सकती हूँ, लेकिन जितनी भी वार मैं देश जाने के लिए राह खोजती हूँ, राह में काँटे उग आते हैं। देश के दरवाजे भले ही और किसी के लिए न सही मेरे लिए बिल्कुल बंद हैं। मेरे विदेशी शुभाकांक्षी लोग एक जैसी ही सलाह देते हैं-"कौन जाने, कब, क्या हो जाए, इस तरह तुम सुरक्षा-व्यवस्था मत हटाओ।" लेकिन दूसरों की सलाह मानकर अपना जीवन चलाने के पक्ष में मैं लगभग विल्कुल नहीं हूँ। जो व्यक्ति सुरक्षा-व्यवस्था का सबसे उच्च कर्मचारी है, मैंने आवेदन भेजकर वह व्यवस्था बंद करने का आग्रह किया। विदेशी सभा-समितियों में आना-जाना शामिल होना लगा ही रहता है। मैंने एक जानकारी, हर देश को दे दी है कि मेरे लिए अगर सुरक्षा-व्यवस्था की गई तो मैं नहीं आऊँगी। अब बहुत से देश सुरक्षा के बिना मेरे स्वागत के लिए तैयार नहीं होते। तो क्या हुआ? मैं भी पलटकर नहीं देखती। बहुत से देश मुझसे यह अनुनय करते हैं सुरक्षाकर्मियों की तादाद कम करने की शर्त पर मैं आने को राजी हो जाऊँ, लेकिन मुझे अंदाज़ा है कि हवाई अड्डे पर उतरते ही झुंड-का-झुंड पुलिस मुझे घेर लेगी, साथ ही सैकड़ों यात्रियों से मैं बिल्कुल अलग हूँ, यह भी साबित हो जाएगा। बिल्कुल उसी वक्त से सबकी निगाहें मेरे चेहरे पर होंगी। हर निगाह मेरे चेहरे की हर पेशी पर गड़ी होगी। मेरे हर शब्द, हर अक्षर, मेरे हर पदक्षेप, हर हस्तक्षेप पर सबकी निगाहें मुझे घूर रही होंगी। यह बाकायदा निर्यातन है, अपने पर निर्यातन! इसके अलावा यह अगर ज़रूरी होता तो मैं मान भी लेती, लेकिन अगर ज़रूरी नहीं है तो इस बेवजह की सुरक्षा के विरुद्ध क्यों नहीं अड़ जाऊँ? इसलिए मैं अड़ गई। अधिकारियों ने मेरे आवेदन पर विचार किया। हाँ, बस गाड़ी का इंतजाम बंद हो गया, यही असुविधा भी हुई। खैर, फ़ायदे अनगिनत हुए। सबसे बड़ा फ़ायदा हुआ-आज़ादी! नहीं, उन लोगों ने मुझे पराधीन कभी नहीं रखा। उन लोगों ने यह कभी नहीं कहा कि जहाँ तुम जाना चाहती हो, उस जगह तुम नहीं जा सकतीं या तुम यह नहीं कर सकतीं, वह नहीं कर सकतीं, लेकिन यह जो मैं अपने गर्दन, अपनी पीठ पर, हर पल, लोगों की श्वास-प्रश्वास महसूस करती थी, इसी बात ने मुझे पराधीन बना रखा था। फर्ज करें, मेरा मन हो रहा है कि जाकर हरी-हरी घास पर दिन-भर लेटी रहूँ, लेकिन मैं नहीं लेटती, क्योंकि दिन-भर हरी-हरी घास पर लेटे रहने पर, मेरे इर्द-गिर्द वैठकर पहरा देने का उन लोगों का मन न हो! ख़ामख़ाह यूँ पहरा देना, उन्हें शायद भला न लगे, इसलिए मैं नहीं जाती थी। मेरा यह ख़याल, जो मेरे पैर पीछे खींच लेता था, मुझे मनमानी नहीं करने देता था-इसे ही मैं पराधीनता कहती हूँ। वैसे जान बचाने के तकाजे पर पराधीन रह ही सकती हूँ। देश में भी दो महीने के अँधेरे दिनों में, मेरे पास आज़ादी नामक कोई चीज़ नहीं थी, लेकिन मुझे कभी, एक बार भी नहीं लगा कि पश्चिम में अगर वह बांग्लादेश न हो या कोई मुसलमान-बहुल देश न हो या जंगी मुसलमान आवादी वाला इलाका न हो तो कहीं भी, किसी भी देश में, मेरी जान का खतरा है। जर्मनी एक धनी देश है। उन लोगों के लिए मेरी सुरक्षा की खातिर, अनगिनत सरकारी अधिकारी और कर्मचारी तैनात करने में कोई असुविधा नहीं है। चूंकि वह धनी देश है, इसलिए मुझे यह फिजूलखर्ची मान लेनी होगी? नहीं, धनी या गरीब, किसी भी देश की तरफ से यह बर्बादी मुझे कबूल नहीं है। इससे तो बेहतर है कि सुरक्षा-कर्मचारी वर्ग अपनी शक्ति और मेधा वहाँ खर्च करें, जहाँ इसकी ज़रूरत है। मैं ठहरी तुच्छ इंसान ! मेरे लिए इतना विशाल आयोजन अर्थहीन है। पैसों की इस कदर बर्बादी निरर्थक है।

मुझे बर्लिन का चाँद मिल गया। मेरी जैसी मर्जी हो, चलूँ! अकेली चलूँ! मैं भीड़ में घुल-मिल सकती हूँ! कैसी भी इंसान बनूँ! आम इंसान बनूँ! टैक्सी चढूँ या ट्राम! बस-ट्रामों में सफ़र करूँ! घुड़सवारी करूँ या भेड़ की पीठ पर! मुझे सबसे बड़ी खुशी यह थी कि अब मैं इंसानों को देख सकती हूँ! इंसान का सुख-दुःख जान-समझ सकती हूँ। अब मैं देख सकती हूँ कि दुनिया में सभी लोग एक समान हैं। इंसानों की भाषा भिन्न हो सकती है, त्वचा का रंग, आँखों का रंग, वालों का रंग अलग-अलग हो सकता है; घर-द्वार, खान-पान, पोशाक-पहनावे में फर्क हो सकता है, आचार-व्यवहार भिन्न हो सकता है। लेकिन इंसानों का दुःख-सुख एक जैसा होता है। हिंसा, सद्भाव भी एक जैसे होते हैं। इंसानों का बोध भी एक जैसा होता है। हाँ, उसकी अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न हो सकती है। बहुत बार, बहुत कुछ का कारण भी अलग-अलग हो सकता है। जिस वजह से मैं मान-ठान लूँ, उस वजह से दूसरे लोग शायद वैसा मान न करें। जिस वजह से और लोग खश होते हैं. मैं न होऊँ! लेकिन प्यार हर जगह प्यार ही होता है। इंसान प्यार हर कीमत पर चाहता है। घृणा भी हर जगह घृणा ही होती है। इंसान दूसरों से नफरत करे या न करे, खुद किसी की नफ़रत नहीं पाना चाहता। कुत्सित, कुटिल, ठगबाज़, नाटकबाज़, खूनी, बदमाश, कोई भी नफ़रत का पात्र नहीं बनना चाहता।

बर्लिन का चाँद मेरे हाथ लग गया। दौड़ते-दौड़ते मैं दीवार के करीब पहुँचकर ठिठक गई। यहीं वह दीवार खड़ी थी। अब टूट चुकी है, जिस पर चित्र आँके हुए थे! इधर बाप, उधर काका! दोनों ओर दो बहनें! यहाँ जिंदगी इसी ढर्रे से चलती थी। इधर रुपयों से मालामाल, उधर ठनठन गोपाल! दीवार तोड़कर आखिर हुआ क्या? झुंड-के-झुंड लोग पूरब से पश्चिम की तरफ आए और केले ख़रीदकर ले गए। पूरब के फुटपाथ केले के छिलकों से पट गये हैं। रंगीन टेलीविजन खरीदने की धूम मच गई है। इधर चमचमाती-जगमगाती दुकानें! सैकड़ों किस्म के सावुन, सैकड़ों किस्म के शैम्पू! ये सब चीजें देखते-देखते पूरव के लोगों की पलकें नहीं झपकतीं। उधर पूरब के कल-कारखाने फटाफट बंद हो गए। पल-भर में लोगों की नौकरियाँ चली गईं। तमाम नर्सरी स्कूलों पर ताले पड़ गए। डे-केयर बंद! बेरोज़गार स्कूल-अध्यापिकाएँ. अब शाम ढले सज-धजकर सड़कों पर उतर आती हैं। हड्डियाँ कँपा देने वाली सर्दी में, लंबी-लंबी टाँगों वाली औरतें, मिनी-स्कर्ट पहने, दीवाल के करीब ही खड़ी रहती हैं। अगर कोई लफंगा या नशे में टुन्न शख्स, जिस्म खरीदने के लिए आ जाता है, तो वे अपने को सस्ते में वेच देने के इंतज़ार में होती हैं! वे औरतें वर्लिन के चाँद की तरफ टकटकी लगाए, दीवार के जादू निहारती रहती हैं। इस दीवार ने किसी को दिग्विजेता बना दिया, किसी को दिवालिया! कोई जलकर खाक हो गया, किसी को अधिकार मिल गया।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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