जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
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बर्लिन का चाँद
यह तो है मानो,
पोखर किनारे, हस्नाहेना दरख्त के करीब, उगा हुआ चाँद!
फुलबेड़िया जाते हुए खड़ा जो बाँसों का झुरमुट,
उस झुरमुट की ओर कदम बढ़ाते ही,
मानो कंधे तक झुक आएगा हूबहू ऐसा ही चाँद!
बर्लिन की इस माटी से आती है, सड़े-गले हाड़-मांस की गंध!
हिटलर की स्मृतियाँ,
कुछ यहाँ, कुछ वहाँ, कुछ दिल-दिमाग़ में!
कल-कारखानों का धुआँ,
जिसे आसमान ने छुआ,
टूटे गिरजे, नई-नई इमारतें लाँघकर, उगा हुआ चाँद!
यह तो है मानो,
बरुआ लोगों के जले हुए घर का चाँद,
दिन के वक्त,
मछलियों के टुकड़े को धो-काटकर,
पहसुल जैसा पहसुल-मौजूद,
मछली की चोई, पड़ी रही पास
नहाने चलीं किशोरियाँ चाँद के जल में,
आधी रात छत पर!
यह तो है मानो,
अमलापाड़ा वाले पढ़ाई के कमरे की खिड़की से,
नज़र आनेवाली, मुहल्ले के सुशान्त'दा की हँसी,
लोग कहते थे, सुशान्त पागल है,
धत्! पागल कहीं बजा सकता है,
यूँ पागल कर देने वाली बाँसुरी?
चाँद का कोई पूरब-पश्चिम नहीं होता,
आकाश उसका आँगन जैसे!
यह तो सिर्फ इंसान में ही होता है,
बुरा-भला, सफेद-सियाह, इस पार-उस पार!
दरअसल चाँद उसका है,
जिसके पास दिल भर-उजाला, अंग-भर गाढ़ा अंधकार!
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