जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
रात करीब एक बजे उठ खड़ी हुई और पव से बाहर निकल आई। मैथियस ने मुझे गाड़ी में सवार करा दिया।
ड्रेसडेन की एक सड़क का नाम, आज भी कार्ल मार्क्स रोड है। गिरजाघर . के लोगों ने अभी भी उस सड़क का नाम, वही का वही रखा है। पता नहीं, यह उन लोगों की सहनशीलता का परिचय था या और कुछ ! लेकिन अव गिरजा ही सत्ता में है, यह सच है। नई बोतल में पुरानी शराव जैसी! बोतल भले बदली हुई हो, लेकिन अंदर की चीज़ वही रहती है। उससे भी नशा होता है। अफीम के नशे जैसा! करोड़ों-करोड़ रुपए खर्च करके, आजकल एक नया गिरजाघर बनवाया जा रहा है। ये तमाम बातें, मुझे हताश करती रहीं। आजकल ये पादरी-पुरोहित, गिरजों के पुराने नियम-कानून की वेहद समालोचना करते हैं। अपने को वेहद आधुनिक क्योंकर होने का दावा करते हैं, लेकिन मौलवी, पादरी, पुरोहित आधुनिक होने लगे? उन लोगों की तो जड़ में ही प्राचीनता और अंधापन भरा है।
ड्रेसडेन बेहद दुःखी शहर है। शहर का अस्सी प्रतिशत दूसरे महायुद्ध के समय या तो क्षतिग्रस्त हो चुका है या पूरी तरह ध्वंस हो चुका है। सन् उन्नीस सौ पैंतालीस की तेरह-चौदह फरवरी के दिन, ड्रेसडेन पर कॉट बॉम्बिंग हुई थी, हालाँकि अमेरिका को इस डेसडेन शहर को धल में मिला देने की कोई जरूरत नहीं थी। अब करोड़ों खर्च करके ड्रेसडेन के उन सब टूटे-फूटे गिरजों की मरम्मत की जाएगी। क्यों, भई? गिरजे वनवाकर क्या होगा? जर्मनी का पूरब-पश्चिम मिलकर अब एक हो गया है। उन लोगों ने गिरजाघरों से ही कम्युनिस्ट-विरोधी आंदोलन चलाया था इसीलिए कम्युनिज़्म के पतन के बाद आंदोलनकारी अव सिंहासन पर विराजमान हैं।
शिक्षा मंत्री ने खुद ही कहा, “अब, कम्युनिस्टों को पकड़-पकड़कर उनकी नौकरी खाई जा रही है।"
"क्यों?"
जवाब मिला, “कम्युनिस्ट लोग भी तो अपने राज में कम्युनिस्ट-विरोधी लोगों की नौकरी खा जाते थे।"
पूर्वी जर्मनी में धर्म लहक-लहककर बढ़ता जा रहा है। बेरोज़गारी भी बढ़ती जा रही है! वेश्यावृत्ति बढ़ रही है। कोई-कोई तो यह भी कहता है कि पूरब और पश्चिम का जो मिलन हुआ है, वह सचमुच का मिलन नहीं है। पूर्व पश्चिम के हाथों बिक चुका है। समाजतंत्र पूँजीवाद के हाथों बिक चुका है।
टिड्डियों की तरह झुंड भर आशंका, अंधे चमगादड़ों की तरह काले-काले दुःस्वप्न, मेरे दिमाग में चक्कर काटने लगे।
रात को हिल्टन में अपने शाही सूट में बैठे-बैठे, नोरबर्ट और वुल्फगांग से मेरी बातचीत हुई। हम सब हान्स की करतूतों से बुरी तरह झुंझलाए हुए थे। उसे छोड़कर भी हमारी दोस्ती कायम रहेगी-उन लोगों ने कुछ इसी किस्म का प्रस्ताव किया। अब मैं गर्मी के मौसम में आया करूँ और नोरबर्ट के राजमहल में ठहरा करूँ। नोरबर्ट की बीवी, इभा और नोरबर्ट को मुझे पाकर खुशी होगी, नोरबर्ट कहता रहा। मेरे चेहरे पर उदास मुस्कान झलक उठी। मैं मन-ही-मन इस सुदर्शन नौजवान के प्रति एक किस्म का प्यार पाल बैठी थी। ड्रेसडेन की सड़कों पर नोरवर्ट ने जिस अदा से अपनी वाहें फैला दी थीं, अपने हाथ में मेरा हाथ थामे, हज़ारों-हज़ार लोगों को दिखा-दिखाकर, मगरूर नौजवान प्रेमी की तरह वह घूमता-फिरता रहा, उस प्रेमी नौजवान को प्यार किए बिना, क्या मैं रह सकती थी? जिन निगाहों से वह वार-वार मेरी तरफ देखता रहा, उन निगाहों में क्या मुझे कोई सिहरन नज़र नहीं आई? सारा कुछ क्या क्षणिक था? सिर्फ कुछ दिनों की महज यादें-भर बनकर रह जाएँगी। शायद ऐसा ही हो! मेरे साथ अक्सर ऐसा ही होता है। किसी दूर देश का कोई, बस, अचानक ही एकदम से भला लग जाता है। जैसे नॉर्वे में वह हालफतान, मुझे पसंद आ गया था। जैसे पैरिस में जिल या वेर्नार्ड हेनरी अच्छे लगने लगे थे। सैलानी की जिंदगी ठहरी मेरी! देश-देश में सिर्फ वादें ही रख आती हूँ। कहीं-कहीं दिल में थोड़ी बहुत मुहब्बत ज़रूर जाग उठती है, जैसे नदी तट पर रेत का बिस्तर विछ जाता है, वैसे ही मैं कहीं वसना चाहती हूँ, किसी दिल में! लेकिन कहीं बसना, शायद मेरे लिए है ही नहीं!
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ