जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
रात को मेरे सम्मान में पार्टी! यह पार्टी संस्कृति मंत्री और नारी कल्याण मंत्री की तरफ से थी। वहाँ शिक्षा मंत्री, संस्कृति मंत्री और नारी कल्याण मंत्री मुझे घेरे रहे। उस पार्टी में अनेक सरकारी गण्यमान्य लोग आमंत्रित थे। कैथोलिक गिरजा के पादरी, मेरी दाहिनी तरफ आसीन थे। तथाकथित शांतिपूर्ण आंदोलन या पीसफुल रिवोल्यूशन के बारे में जानने का मेरा आग्रह बढ़ गया।
“आप राजनीति में कैसे आए?"
मेरे इस सवाल के जवाब में मैथियस, संस्कृति मंत्री ने कहा, "मैं राजनीति से जुड़ा हुआ नहीं था, लेकिन, हाँ, गिरजाघर से जुड़ा हुआ था।"
नारी कल्याण मंत्री पहले नर्स थीं। वे भी उसी गिरजाघर की फसल थीं। अब ये धर्मवादी ही वहमत में हैं। मैथियस इंजीनियर थे, कॉलेज में पढ़ाते थे, लेकिन उन्हें प्रोफेसर का उच्च पद कभी नहीं मिला, क्योंकि वे कम्युनिस्ट नहीं थे।
उन्होंने फिक-फिक हँसते हुए कहा, “वहरहाल कम्युनिस्टों को खदेड़ दिया। यह कोई आसान वात नहीं थी। हम लोग सत्तर प्रतिशत वोटों से जीत गए।"
मेरा सवाल है, जिन लोगों ने कम्युनिस्ट-विरोधी आंदोलन किए, सिर्फ वही लोग आज सत्ता में क्यों हैं? जो इंसान संस्कृति मंत्री है, उसका संस्कृति से कोई सराकार नहीं। गृहमंत्री गिरजाघर के पादरी थे। इन लोगों को राजनीति, अर्थनीति, समाज-संस्कृति के बारे में आखिर समझ कितनी है? देश में क्या सुयोग्य लोग नहीं थे? पाँच वर्षों में ये लोग उन्हीं आवेगों के सहारे चल रहे हैं। समूचा देश विकट ऊँट की पीठ पर सवार है। पीसफुल रिवोल्यूशन का भावावेग! यह आर्थिक बदहाली आखिर कैसे दूर हो, इसके जवाब में मैथियस ने औद्योगीकरण की बात कही ज़रूर, लेकिन सम्पदा और दिखावे की ताम-झाम के प्रति इंसान का आकर्षण, लोभ कैसे दूर हो, इसका जवाब वे नहीं दे पाए। समूचे सेक्सोनिया में मुझ घृणा, कम्युनिज़्म के प्रति हिकारत की गंध मिली।
डिनर निबटाकर हमारा छोटा-सा दल संस्कृति मंत्री समेत एक पुराने पब में पहुँचा। ड्रेसडेन का स्पेशल पव! यह पब ट्राम के आकार में सजाया गया है। पब के कंडक्टर-मालिक ने पब की तरफ से छोटा-मोटा अभिनंदन दिया। उसकी बीवी ने मुझे संबोधित करके कई गीत गाए। वह अधनंगी औरत जब गा रही थी, मुझे बार-बार उस पर से अपनी निगाहें फेर लेनी पड़ीं। ऐसा लगा, जैसे 'पीसफुल रिवोल्यूशन' के जरिए इन लोगों ने नंगापन भी अर्जित किया है। वहाँ अड्डा, बियर, शैम्पेन, धूम्रपान का दौर जारी रहा। वहाँ किसी मंदबुद्धि का अनुरोध भी निगलना पड़ा और दीवार पर कुछ लिखकर दस्तख़त भी करने पड़े। ये लोग मशहूर हस्तियों के दस्तख़त दीवार पर दर्ज़ रखते हैं। मैं मन-ही-मन दर्द से छटपटा उठी। नई सरकार कम्युनिस्ट लोगों को नौकरियों से खदेड़ रही थी और जो लोग कम्युनिस्ट-विरोध में शामिल थे, उन लोगों को नौकरी दी जा रही है। यह भी तो एक किस्म का अत्याचार और निर्यातन ही तो है। मैंने जी भरकर बहस की। उन लोगों का तर्क था कि कम्युनिस्ट लोगों ने अपने ज़माने में भाई-भतीजेवाद के जरिए नौकरी हासिल की थी, इसीलिए उन लोगों को खारिज किया जा रहा है, लेकिन मेरे मन में यह धारणा जाग उठी कि कम्युनिस्ट लोगों को खदेड़कर सुप्त ईसाई कट्टरवाद अपने पंख पसार रहा है, इसी लस्वरूप क्षब्ध मस्लिम कट्टरवाद भी साँप की तरह अपने फन काढ़कर, फत्कार उठा है, बीच में मैं खड़ी हूँ, विस्मय से वाद्ध।
“आप तो तकनीक के आदमी हैं, संस्कृति कितना समझते हैं?" मैंने पूछा।
मैथियस फिक् से हँस पड़े, “शिक्षा का पक्ष देख रहा हूँ।"
हाँ, सो तो जनाब देख ही रहे हैं। आराम से स्वजन-प्रीति किए जा रहे हैं। कम्युनिस्टों ने जो किया, वही अगर आज आप भी कर रहे हैं तो क्रांति कौन-सा परिवर्तन लाई? आज अगर कोई कम्युनिस्ट किसी काम के सुयोग्य हो तो क्या उसे वह नौकरी मिलेगी? क्यूँ, जनाब मैथियस, मिलेगी उसे नौकरी? मुझे नहीं लगता।
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