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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


जर्मनी में शरणार्थियों की संख्या और उनकी स्थिति में सुधार लाने के लिए, और ज्यादा शरणार्थियों को आमंत्रित करने के प्रयास करने, उन लोगों की सुरक्षा का इंतज़ाम करने, नए नाज़ियों के खिलाफ़ आंदोलन करने में उनकी अपनी क्या भूमिका है, उन्होंने इसका भी हवाला दिया। उन्होंने यह भी कहा कि अगर वे सरोयेभो न गए होते तो वे मेरे सम्मान में कोई बहत बडा अभिनंदन-समारोह आयोजित करते। इसके अलावा जो जानकारी सभी लोग चाहते हैं, उन्होंने भी जानना चाहा कि यह इस्लामी कट्टरवाद इस कदर बढ़ क्यों रहा है। अन्य लोगों की तरह ही उन्होंने भी दरयाफ्त किया कि इसका समाधान क्योंकर संभव है। अपने क्षुद्र ज्ञान के मुताबिक मैंने भी यथासंभव उत्तर दे डाला। मेरे लिए उन्होंने यूरोपीय संसद में कई मीटिंग्स भी की और अंत में स्कैन्डिनेविया ने यह ज़िम्मेदारी कबूल कर ली। उन्होंने स्वीटन सरकार की भी काफी प्रशंसा की।

बॉन के विदेश मंत्रालय से निकलकर, फिर व्यक्तिगत हवाई जहाज। जहाज में बैठे-बैठे बड़ी-सी सलमन मछली मेरे सामने परोस दी गई। मैं आराम से छुरी-काँटे से काट-काटकर खाती रही। यह मछली मुझे नोरबर्ट ने खिलाई।

कुक्सहेवेन पहुँचकर सुरक्षाकर्मियों की गाड़ी में सवार होकर सीधे टाउन हॉल या सिटी हॉल या रथहाउस! वहाँ भी मेयर मेरे स्वागत के लिए खड़े मिले। मेयर ने जर्मन भाषा में, सबके साथ, समवेत स्वर में 'चीयर्स' कहा कि मुझ जैसे व्यक्तित्व को अपने वीच पाकर वे और उनका शहर खुशी से भर उठा है। समूची दुनिया में मत प्रकाश की आज़ादी के लिए, मैं जो संघर्प, जो त्याग कर रही हूँ, इसके लिए सिर्फ आज ही नहीं, सुदूर भविष्य में भी लोग मुझे अतिशय श्रद्धा से याद करेंगे। वहरहाल अब कहीं, कोई सरकारी कार्यक्रम मुझे नया नहीं लगता। इसके बजाय जब मैं अकेले-अकेले सड़कों पर घूमती-फिरती हूँ, तो काफी कुछ नया देखती हूँ। अपने यार-दोस्तों के साथ अड्डा दते हुए भी काफी कुछ नया सुख मिलता है। इंसान को काफी करीब से देखना, बेहद व्यक्तिगत ढंग से देखना, मुझे हमेशा से ही बेहद पसंद है। मेयर के सम्मान समारोह के वाद प्रेस-कान्फ्रेंस! यह आयोजन देखकर मेरा मूड फिर खराव हो गया। होटल की लॉबी में ढेरों पत्रकार मेरी राह देख रहे थे। मुझे ताज्जुब हुआ कि कुक्सहेवेन, जर्मनी का एक छोटा-सा शहर है। यहाँ के पत्रकारों को भी मेरी तमाम ख़बरों की जानकारी है।

इसके बाद होटल के बैंक्वेट रूम में, इंटरनेशनल ऑप्टिमिस्ट ऑर्गेनाइजेशन का सम्मान-समारोह! यह मुख्य रूप से नारी संगठन है! वहाँ दो सौ जर्मन महिलाएँ माजूद थीं। शम्पन-पान का दार चला। मने वाग्ला में कविता पढ़ी। हाँ, इसका अनुवाद भी सनाना पड़ा। उनकी तरफ से अनगिनत सवाल किए गए। उनका यह भी सवाल था कि वे लोग मेरी मदद कैसे करें। मैंने अपनी नहीं, वांग्लादेश की निर्यातित औरतों की मदद करने की राह बताई। वे लोग अगर चाहें तो एन.जी.ओ. के जरिए बांग्लादेश की औरतों की सहायता कर सकती हैं।

इसके बाद गाड़ी में सवार होकर रात की सैर-तफरीह! शहर कुक्सहेवेन का चक्कर! यह शहर किसी ज़माने में मछली की आढ़त थी, अब सैलानियों का बसेरा! गर्मी के मौसम में यह शहर लोगों से भर जाता है। सबके सब रेत पर नंग-धडंग लेटे रहते हैं। अब किसी बड़े रेस्तराँ की तलाश शुरू हुई! मैंने साफ मना कर दिया। फिर? टिपिकल कुक्सहेवेन खाना मिलेगा? यही तो चाहिए! बड़े-बड़े रेस्तराओं में काफी खा-पी चुकी। अव, मैं कहीं अंदर या अंतर में उतरना चाहती थी।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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