जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
चलते-चलते ही मंत्रीजी ने कहा, "हमने सोचा था कि आप जर्मनी आ रही हैं, लेकिन अचानक सुना कि आप स्वीडन में ही उतर गई। आपकी तो जर्मनी में रहने की बात थी, लेकिन आप स्वीडन में ही क्यों रुक गई?"
मैं क्या जवाब दूँ, मेरी समझ में नहीं आया। नॉर्वे में भी मुझसे पूछा गया था कि मैं नॉर्वे में क्यों नहीं रहती। वैसे नॉर्वे में रहने के लिए मुझे क्या-क्या करना होगा, इसकी जानकारी तो मुझे होनी चाहिए। मैं हाथ-पाँव बँधे इंसान की तरह स्वीडन में ही पड़ी हूँ। अव, तुम्हारी इच्छा हो, तो मुझे ले आओ। वैसे मुझे स्वीडन, नॉर्वे या जर्मनी में कोई फर्क नज़र नहीं आता। मेरे लिए तो सब विदेश है। किसी-किसी ने तो मुझसे सवाल भी किया कि मैं स्वीडन या अन्य किसी देश में राजनैतिक आश्रय की माँग क्यों नहीं करती। यह सुनकर मुझे बेहद गुस्सा आया। मैं आश्रय क्यों माँगूं? में क्या कोई भिखारी हूँ? मुझे क्या पड़ी है कि मैं किसी पराये घर में, हाथ जोड़कर आश्रय माँगूँ? मेरा क्या अपना कोई घर नहीं है! मैं तो अपने देश लौट ही जाऊँगी, चाहे आज या कल या परसों। अगर मैं आश्रय माँगूंगी तो वे लोग मेरा पासपोर्ट ले लेंगे और मुझे किसी और देश की नागरिक बना देंगे। जो मैं नहीं हूँ, मुझे वही बन जाना होगा। यह मुझे हरगिज कबूल नहीं है। मैं बांग्लादेश की नागरिक हूँ, मैं इसी में गर्व महसूस करती हूँ। भले ही वह दरिद्र देश है, भले ही वहाँ कट्टरवादियों ने सिर उठा रखा हो, उस देश को स्वस्थ और सुंदर बनाने, देश के लोग सुख-चैन से रहें, इस देश से अन्याय-विषमता दूर हो-इन सबके बारे में, मैं सिर्फ अपना ही भला नहीं देखती, इसे पूरा करने के लिए मैं जी-तोड़ मेहनत भी करूँगी, मैंने कसम खा रखी है। जिंदगी में मुझे और कोई आकांक्षा नहीं हैं। ना, मुझे पति-बच्चे, जमीन-जमा, हज-उमरा वगैरह की कोई चाह नहीं है। क्लाउस किनकेल के प्रति मेरे मन में अपार श्रद्धा और कृतज्ञता थी। इन्हीं क्लाउस किनकेल ने ऐलान किया था कि यूरोपियन यूनियन मुझे राजनैतिक आश्रय देगा। जब मैं अपने देश में छिप-छिपकर दिन गुज़ार रही थी, तब उनका समर्थन बहुत बड़ी घटना थी।
बहरहाल क्लाउस किनकेल ने मुझसे जर्मन भाषा में बातचीत की। यहाँ भी वही आलम! दुभाषिया मौजूद था। कागज का मोटा-सा बंडल लिए, उनका सहयोगी हाज़िर हुआ। हमारी बातचीत का नतीजा सफल हुआ या नहीं, इसकी ख़बर शायद आज ही लिखित रूप में दर्ज हो जाएगी। मैंने गौर किया, मंत्रिगण जब मुझसे बातचीत करते हैं, उन लोगों के हाथ में, तसलीमा नसरीन, नाम लिखा हुआ, भारी-भरकम-सी फाइल होती है। बीच-बीच में वे लोग वह फाइल भी नचाते रहते हैं। वह फाइल देखने की, मेरे मन में तीखी चाह जाग उठी। मैं भी देखू तो सही, उस फाइल में
लिखा क्या है। हाँ, क्लाउस किनकेल से देश-विदेश, राजनीति-समाज, कला-साहित्य, धर्म और कट्टरवाद वगैरह पर विस्तृत बातचीत हुई। क्लाउस किनकेल ने बताया कि मानवाधिकार के क्षेत्र में उनका क्या-क्या अवदान है और इन दिनों उन सबका समर्थन करना क्यों जरूरी है। उन्होंने मेरे लिए क्या-क्या किया, इस बारे में भी मैंने उनका बयान सुना। इस किस्म का समर्थन उनके जीवन के लिए जोखिम भरा ज़रूर है, यह जानते हुए भी, वे यह सब कर रहे हैं। उन्होंने सलमान रुशदी के लिए भी यह सब किया था। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि जिस कुर्सी पर मैं बैठी हूँ, कुछ महीनों पहले, सलमान रुशदी भी उसी कुर्सी पर बैठकर उनसे बातचीत करते रहे। क्लाउस किनकेल ने अपने आगामी कार्यक्रम के बारे में भी बताया। वे उसी दिन सरोयेभो जा रहे हैं, वहाँ के मुसलमानों को समर्थन देने के लिए। उन्होंने शरणार्थियों के लिए जो-जो किया है, उसके लिए बहुतेरे लोग उन पर क्रुद्ध हैं, लेकिन उन्हें इसकी परवाह नहीं है। उन्हें परवाह क्यों नहीं है, उन्होंने इसका भी विस्तृत हवाला दे डाला। उसके बाद उन्होंने मुझसे, वांग्लादेश की राजनैतिक स्थिति के बारे में जानना चाहा। उन्होंने दरयाफ्त किया कि वे मेरी मदद कैसे कर सकते हैं। मैंने अपनी हालत के बारे में तो नहीं मगर बांग्लादेश की राजनैतिक अस्थिरता, मुल्लों के उत्पात के बारे में बताया। मैंने इसका भी हवाला दिया कि मुल्ले नारी प्रगति के खिलाफ़ क्या-क्या कर रहे हैं। मैंने उनके प्रति थोड़ी-बहुत कृतज्ञता भी जताई, क्योंकि यह तो सच था कि उन मुसीबत भरे दिनों में, उनके समर्थन के बिना, वाघ के खौफनाक पंजे से निकलना मेरे लिए संभव नहीं था।
क्लाउस किनकेल ने कहा, “सुनो, जर्मनी के दरवाजे, तुम्हारे लिए हमेशा ही खुले हैं।"
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