जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मेरी तरफ पहला सवाल उछाला गया, "क्या आपको मालूम है कि दो फ्रेंच बुद्धिजीवी लोगों ने आपके खिलाफ़ एक प्रेस कान्फ्रेंस की है?"
"हाँ, मैंने सुना है।"
"उस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगी?"
"वे लोग अपनी राय जाहिर करने के लिए स्वतंत्र हैं।"
''आपके नाम से जो 'लज्जा' किताब प्रकाशित हुई है, यह किसने लिखी है?"
"मैंने!"
"नहीं, आपने नहीं लिखी है। दावा किया जा रहा है कि आपकी वह किताव किसी और ने लिखी है।"
"झूठ है! वह किताव मैंने लिखी है। 'लज्जा' ऐसी कोई उन्नतमान की किताव नहीं है, जो मैं नहीं लिख सकती।"
"यह बात आप कैसे सावित करेंगी कि वह किताब आपकी लिखी हुई है?''
"मुझे कुछ साबित नहीं करना है।"
"कहा जा रहा है कि आप लेखिका हैं ही नहीं, लेकिन पश्चिम में आकर आप यह प्रचारित करती फिर रही हैं कि आप लेखिका हैं?''
"ठीक है, आप लोग खुद ही खोज निकालिए कि 'लज्जा' किसने लिखी है। पता कर लीजिए कि तसलीमा नसरीन कौन है, जिसको फतवा दिया गया है-कभी आप लोगों ने ही प्रचारित किया था।"
मुझे इन सब सवालों से वितृष्णा हो आई। इन सबका जवाब भी बिल्कुल सटीक था, लेकिन बिल्कुल भिन्न भाषा में पता नहीं मैं कितना समझा पाई। मारे अभिमान के पत्थर बने रहने से क्या खूब तांडव किया जा सकता है?
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