जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
जिल मुझसे मिलने के लिए स्ट्रसबुर्ग आई। क्रिश्चन सलमन भी आ पहुँची, जो इंटरनेशनल पार्लियामेंट ऑफ राइटर्स की सेक्रेटरी थी। फ्रेडरिक लेफ्राय नामक जिस नौजवान ने आर्ते टेलीविजन के लिए मुझ पर डॉक्यूमेंटरी तैयार की थी, वह भी मिलने आया। उसने होटल में ही शूटिंग की थी। मेरी तरफ कागज-कलम बढ़ा दिया गया था। मैं लिखती रही, लेकिन मैंने जो कुछ भी लिखा, सब बांग्ला में था। जिल आ गई, मुझे बेहद खुशी हुई। काफी रात तक हम स्ट्रसबुर्ग की सड़कों पर पैदल-पैदल टहलती रहीं। गॉथिक डिजाइन पर निर्मित वह मशहूर कैथेड्रल हमने दुबारा देखा, उस कैथेड्रल को बार-बार देखने का मन होता है। उस कैथेड्रल को जितना भी देखती हूँ, विस्मय ख़त्म नहीं होता। कैथेड्रल से आगे हम लोग कैनेल के किनारे-किनारे आगे बढ़ते रहे। सड़कों पर हम शहंशाहों की तरह चलते रहे। लेकिन शहंशाहों को भी चिंता-परेशानी तो होती ही है न! मैंने खुद ही, जें दान आलिए का ज़िक्र छेड़ दिया। मेरी आवाज में तिलमिलाहट भी झलक उठी।
"सुनो, अगर वह यह कहता कि तसलीमा खास बड़ी लेखिका नहीं है। उसे इतना वड़ा पुरस्कार मत दो तो ठीक था, लेकिन उसने तो यह चुनौती दे डाली कि 'लज्जा' मेरी लिखी हुई किताब ही नहीं है। अगर मैंने नहीं लिखी तो किसने लिखी, बताओ?"
जिल और फ्रेडरिक दोनों ने ही कहा, “तुम उस पागल के पागलपन को लेकर • अपना दिमाग खराब क्यों कर रही हो?"
"मैं दिमाग खराव कर रही हूँ आम लोगों के लिए। यहाँ जो लोग मेरा समर्थन कर रहे थे, मुझ पर श्रद्धा करते थे, उन लोगों के मन में कहीं खटका तो ज़रूर लगा होगा। उन लोगों के मन में ख़ामख़ाह सवाल तो जगा है न? वे लोग ज़रूर यही सोच रहे होंगे कि जब धुआँ उठा है, तो अंदर कहीं चिनगारी तो ज़रूर होगी।'
"छोड़ो तो! किसी के मन में कोई सवाल नहीं जागेगा। लोग ज़रूर समझ जाएँगे कि वे लोग ऐसी हरकत क्यों कर रहे हैं। तुम्हारी लोकप्रियता पहाड़ जितनी है।''
मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी-पहाड़ जितनी लोकप्रियता भी हल्के-से भूस्खलन से बेनिशान हो सकती है।
यहाँ रात के वक्त एक बार से दूसरी बार का चक्कर लगाते हुए वाइन पीने का आम रिवाज़ है। हम सब भी यथारीति उस रिवाज़ का पालन करते रहे। हर बार में भीड़! रात जितनी-जितनी बढ़ती गई, भीड़ भी उतनी ही बढ़ती गई। रात काफी ढल जाने के बाद हमने रात के खाने के लिए एक रेस्तराँ चुन लिया। फ्रांस के अलग-अलग अंचल में अलग-अलग किस्म का खाना मिलता है। आंचलिक खानों के लिए लोग टूटे पड़ते हैं। मैं भी आंचलिक व्यंजनों की तरफ खिंच आई। हम उसी जाने-पहचाने रेस्तराँ में अड्डा देने और खाना खाने में जुट गए। मैं, जिल, फ्रेडरिक, क्रिश्चन! आस-पास की मेज़ों से हमारी मेज़ पर उपहार के तौर पर वाइन की बोतलों की कतार लग गई। क्यों? इसलिए कि आस-पास के लोग मेरे प्रशंसक और भक्त थे। कुछ लोग मुझसे बातचीत भी करने आए। लोगों ने दूर से हाथ हिलाकर मेरा अभिवादन किया। हमारे खाने का जो बिल आया, वह भी मेरे किसी फ्रेंच भक्त ने चुकाकर हम सबको अवाक् कर दिया। वह रियूनियन नामक अफ्रीका के किसी अंचल से आया था, लेकिन रियूनियन अफ्रीका में था तो क्या हुआ? कानून मुताबिक वह भी फ्रांस का ही हिस्सा था। वहाँ गोरे फ्रांसीसी ही निवास करते हैं। ढेरों रुपए-पैसे खर्च करके फ्रांस ने रियूनियन को टिकाये रखा है। अपनी मेज के सामने ढेरों यार-दोस्तों में घिरा, रियूनियन के उस शख्स ने अपनी टाई खोलकर मुझे भेंट करते हुए कहा कि इसके अलावा इस वक्त और कुछ नहीं है। मैंने बार-बार कहा कि मुझे कुछ देने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन वह भी बार-बार दोहराता रहा कि वह मुझे कुछ देना चाहता है। उसकी टाई अगर मैं कबूल कर लूँ, तो वह धन्य हो जाएगा। वह मुझसे भेंट होने वाले इस दिन को जिंदगी भर याद रखेगा।
आखिरकार मैंने उसका उपहार कबूल कर लिया। मैंने उसे अपने गले में डाल लिया। मुमकिन है, जिंदगी बदल जाए! जिंदगी कहाँ, कितनी दूर तक ले जाएगी, मैं नहीं जानती। लेकिन ये सब पल, जिंदगी को इस कदर भर देते हैं कि कुछ भी अधूरा नहीं रहता। मैंने जिंदगी में चाहे जितना भी संघर्ष किया हो, लेकिन जितना पुरस्कार मिला है, वह मेरे प्राप्य से कहीं ज़्यादा है।
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