जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बहरहाल वह मशीन अपने को बमुश्किल उठाकर चल पड़ी और रेस्तराँ की तरफ रवाना हो गयी। स्वागत में खड़े गण्यमान्य लोगों से हाथ मिलाते-मिलाते, वह मशीन रेस्तराँ के अंदर दाखिल हुई। उस मशीन के लिए छपा हुआ मेनू-कार्ड! मशीन के लिए फूलों से सजायी गयी मेज़! अपनी-अपनी सीट से उठकर प्रत्येक व्यक्ति ने उस मशीन का स्वागत किया। हर व्यक्ति कृतार्थ हो उठा। चूंकि दुभाषिया उस मशीन की बगलवाली कुर्सी पर विराजमान था इसलिए मारे तनाव के उसके हाथ-पाँव काँपते हुए! सिर्फ दुभाषिया ही नहीं, मैंने बड़े-बड़े वक्ताओं को देखा है। जब वे लोग मेरी बगल में बैठकर दर्शकों से मुखातिब होते हैं तो वे लोग भी काँपते रहते हैं।
मेज़ पर बैठे गण्यमान्य को छोड़कर, मैं दुभाषिए से ही बातचीत में जुट गयी-अच्छा, स्विट्ज़रलैंड देश कैसा है? जवाब देने के लिए वहाँ मौजूद गण्यमान्य लोग ही उतावले हो उठे। ज़रिख, इतना जाना-पहचाना नाम है। मैं कभी ज़रिख को ही स्विट्ज़रलैण्ड की राजधानी समझती थी लेकिन ज़रिख राजधानी नहीं है, वर्ने इसकी राजधानी है। स्विट्ज़रलैंड की सीमा से लगे हुए देश हैं-फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली और तीस हजार आबादी वाला एक नन्हा-सा देश है-लिस्टेइनटाइन! यहाँ अनेक भाषाएँ हैं। जर्मन, फ्रेंच, इटालियन, रोमन! जो जर्मन भाषा यहाँ बोली जाती है, वह आधुनिक जर्मन भाषा नहीं है, एक किस्म की जर्मन डायलेक्ट यानी जर्मन बोली है, लेकिन मेरा यह जानने का मन हो आया कि यह रोमन भाषा क्या है! मुझे बताया गया कि यह भाषा, शायद लैटिन भाषा का अपभ्रंश है। स्विट्ज़रलैंड में लगभग चालीस-पचास हज़ार लोग, इसी भाषा में बातचीत करते हैं।
यह देश यूरोप में होते हुए भी, यूरोप में नहीं है। यह देश, न राष्ट्र-समूह का सदस्य है, न यह यूरोपियन यूनियन का सदस्य है। यह देश, विश्व-राजनीति के सात-पाँच में भी नहीं है। इस देश ने पिछले दोनों विश्व-युद्ध में भी अपनी टाँग नहीं अड़ायी। तुमुल ध्वंसस्तूप में, यह देश अपने को बचा-बचाकर चलता है। इसकी अपनी कोई निजी संस्कृति नहीं है। अगल-बगल की संस्कृति ही टेढ़ी-मेढ़ी चाल में चलकर यहाँ आ पहुँची और स्विस संस्कृति के नाम से विभूषित हो गयी। धनी देश है। बैंक का धंधा करके यह देश अमीर हो उठा। यह धंधा करके भी कोई देश अमीर बन सकता है, लक्समबर्ग इसकी मिसाल है। मैंने अधिकांश ज़रिख शहर, गाड़ी की खिड़की से ही देखा। वैसे ज़रिख में देखने लायक कुछ भी नहीं है। कल-कारखानों का शहर है। बैंकों का शहर है! हाँ, बर्न देखने लायक है। यूरोप के अधिकांश लोगों का यही ख़याल है कि यहाँ कुछ भी नहीं है, जो कुछ है, वह वहाँ है, घास की दीवारों के उस पार ही ज़्यादा हरियाली है।
मुझे बर्न भी जाना है, राजधानी में! हवाई जहाज का टिकट, मेरे हाथ पर रख दिया गया।
मैंने साफ़ ऐलान कर दिया, “हवाई का सफ़र मुझे अच्छा नहीं लगता। मैं ट्रेन से जाऊँगी।"
"लेकिन ट्रेन से जाना तो नहीं हो सकता।"
"क्यों नहीं हो सकता।"
"सुरक्षा कारणों से!"
“धत् ! कुछ नहीं होगा।"
उन लोगों ने तय किया कि मुझे हेलीकॉप्टर से ले जाएँगे। मैं आल्पस देखते-देखते जाऊँगी। यह प्रस्ताव अतुलनीय था। सिर्फ ज़रिख और बन के रास्ते में पड़ने वाला आल्पस ही नहीं, किसी आधुनिक सशस्त्र हेलीकॉप्टर के लिए जितनी दूर-दूर तक जाना संभव था, उतनी दूर-दूर तक के अविश्वसनीय प्राकृतिक सौंदर्य के दर्शन कराते-कराते, मुझे ले जाया जाएगा। हम ग्लेशियर के ऊपर से गुज़रते रहे। जिंदगी में पहला ग्लेशियर! इससे पहले, मैं काश्मीर जा चुकी हूँ, आल्पस के मुकाबले ज़्यादा ऊँचे-ऊँचे शिखरों पर चढ़ी हूँ, लेकिन इस तरह ऊपर से। चिड़िया की आँख से, पहाड़-पर्वत नहीं देखा था। ऊपर से देखने का तजुर्बा ही बिल्कुल अलग है। आल्पस पर्वत पर पैदल चलते-चलते, इस विराटता का अंदाज़ा नहीं हो पाता। यह दृश्य, समुंदर की तरह, मन को काफी विराट बनाता है, समुंदर के करीब जाते ही मैं रग-रग से महसूस करती हूँ कि जीवन बेहद क्षुद्र है, बेहद छोटा! चूँकि जीवन बेहद क्षुद्र है, इसीलिए मन उस क्षुद्रता से उबरकर, बेहद विराट हो आता है। जिंदगी को काफी बड़ा मान लिया जाए, तो मन सिर्फ उसी बड़ी जिंदगी की अंधी अली-गली में ही पनाह ढूँढ़ता फिरता है! उससे उबरने का ख़याल नहीं आता।
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