जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
6 पाठकों को प्रिय 419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
बर्न में मेरी इच्छा हुई कि मैं पैदल-पैदल घूमूं। मैं पैदल-पैदल घूमती फिरी। घड़ी का टावर, जाइटग्लकेंट्रमटी, यहाँ का बड़ा लैंडमार्क है। बर्न स्टड-थियेटर में शास्त्रीय संगीत सुनना पड़ा। दीर्घ दो-तीन घंटे मूर्ति बने बैठे रहना पड़ा। वहाँ ज़्यादातर मेरी निगाहें कभी दर्शकों के आचार-व्यवहार निरखती-परखती रहीं, कभी एक काठी थामे, बुरी तरह झूमते हुए कण्डक्टर की तरफ! पश्चिमी शास्त्रीय संगीत का सुर! सच पूछे तो उस संगीत ने मेरे मन को खास नहीं छुआ। मैं मोज़ार्ट, बेथोवन, शपां, सुमान, चाइकोभस्की, विवाल्डी, बाख, शखमानिनव वगैरह सुन चुकी हूँ! इन विविध संगीत में जैसे पश्चिमी लोग डूब जाते हैं, मैं नहीं डूब पाती। शास्त्रीय संगीत सुनना हो, तो मुझे भारतीय शास्त्रीय गायन चाहिए। मुझे हरिप्रसाद चाहिए! अमज़द अली खान चाहिए।
बर्न में वाकई खासा तमाशा हुआ! मेरे लिए बर्न के गवर्नमेंट हाउस में पत्रकार सम्मेलन आयोजित किया गया। वक्त एक घंटा? जी-नहीं, हद-से-हद आधा घंटा! खैर, अगर पंद्रह मिनट होता तो और बेहतर होता! ऐसे रूखे-फीके वक्त की मीयाद मैं कम करती गयी। पत्रकारों का कौतूहल अब मैं बखूबी पहचानने लगी हूँ। वे लोग सवाल पूछने के लिए जैसे ही अपनी जुबान खोलते हैं, मैं समझ जाती हूँ कि कौन क्या पूछने वाला है। कोई सवाल पूछता है तो उसके सवाल का चवन्नी-भर जुमला सुनकर ही मैं पूरे सवाल का जवाब दे डालती हूँ।
बर्न का संसद भवन बेहद खूबसूरत है। गुम्बद पर क्या कमाल की नक्काशी! खिड़की-दरवाज़ों पर कैसी अद्भुत कारीगारी!! जब मैं वह इमारत घूम-घूमकर देख रही थी, उस वक़्त मुझे लग ही नहीं रहा था कि मैं इस धरती पर हूँ। जब मैं पैदल-पैदल चल रही थी, मुझे ऐसा महसूस हो रहा था, जैसे धरती से काफी ऊपर-ऊपर चल रही हूँ। इतना सब घट रहा है, इतना सब देख रही हूँ, इसके बावजूद कभी-कभी मुझे लगता है, यह सब सचमुच नहीं घट रहा है, मैं शायद सपना देख रही हूँ। मंत्री-समुदाय मिलने आ पहुँचा। मंत्रियों के साथ मेरी ज़रूरी मीटिंग हुई। सबके हाथों में तसलीमा नसरीन लिखी हुई मोटी फाइल। शिक्षा मंत्री, न्याय मंत्री, विदेश मंत्री, गृह मंत्री मुझे घेरकर बैठे रहे। मुख्य रूप से विदेश मंत्री ने ही बातचीत की। उनका सवाल बिल्कुल आम सवाल था। पश्चिम के बहुतेरे लोग यह सवाल करते रहे हैं-'बताइए, हम आपके लिए क्या कर सकते हैं?'
“आप लोगों का समर्थन मिला है, इससे बड़ा पाना, और क्या हो सकता है? मैं अहसानमंद हूँ।"
"फिर भी, बताइए, हम लोग आपकी मदद कर सकते हैं?"
“अब मुझे और क्या मदद चाहिए! में मजे में ही हूँ। मैं जो सुयोग-सुविधा पाकर, बांग्लादेश में पली-बढ़ी और बड़ी हुई हूँ, वैसी सुविधा, बांग्लादेश की अधिकांश औरतों को नहीं मिलती। मुझे वहाँ डॉक्टरी पढ़ने का मौका मिला। वहाँ की करोड़ों लड़कियाँ ऐसे मौकों की कल्पना भी नहीं कर सकतीं। बांग्लादेश की अस्सी प्रतिशत औरतें मानवेतर जिंदगी गुज़ारती हैं! न उन्हें शिक्षा की सुविधा है, न स्वास्थ्य की! अगर आप लोग वहाँ की औरतों की मदद कर सकें, तो यही मेरी जंग में सच्ची मदद होगी।"
मैंने जो-जो कहा, मंत्री महोदय का सेक्रेटरी साथ-साथ लिखता भी गया। करीब घंटे भर-की बातचीत के बाद मैं बाहर निकल आयी। मेरा मन काफी हल्का हो गया। निःस्वार्थ होने जैसी तृप्ति, शायद और कुछ नहीं होती। बाहर निकलकर मैंने लंबी साँस भरी। समूची दुनिया बेहद खूबसूरत लगने लगी। स्विट्ज़रलैंड सरकार, बांग्लादेश को जो आर्थिक सहयोग देती है, अब वह मदद दुगना कर देगी या नहीं, पता नहीं! लेकिन मेरी व्यक्तिगत मदद के लिए उन लोगों के बढ़े हुए हाथ को मैंने हटाते हुए कहा, मदद करनी है, तो उन लोगों की करें। मेरी मदद की ज़रूरत नहीं है। यह जो दुनिया की सबसे अमीर देश की सरकार को, दुनिया के सबसे दरिद्र देश की, देशहीन, घरहीन औरत, अपने अनिश्चित भविष्य के बावजद. जो उन लोगों को लौटा सकती है, उसे क्या ज़रा-सा अहंकार भी नहीं होगा? मुझे अपने इस आत्माभिमान पर सच ही खुशी हुई!
अब, मुझे यहाँ से विश्वविद्यालय दौड़ना था। वहाँ से नारीदवादी और मानववादी संगठन का आमंत्रण मिला था। तमाम अपरिचित लोग, दिनोंदिन परिचित हो रहे थे। स्विट्ज़रलैंड के बारे में मैं जितनी-जितनी जानकारी चाहती थी, उतनी मुझे दी जा रही थी। हाँ, दी तो जा रही थी, लेकिन धन-धान्य-पुष्प से भरे। स्विट्ज़रलैंड जैसे असली और खरे देश के बारे में, एक बात सुनकर मैं वाक्-रुद्ध होकर बैठी रही। इस देश की औरतों को वोट-दान का अधिकार, सन् उन्नीस सौ इकहत्तर में मिला है। यानी अभी हाल के वर्षों में मिला है। इससे पहले इस देश की औरतों को वोट देने का अधिकार नहीं था। रास्ता-घाट, दफ्तर-दुकानों में, जब मैं अल्ट्रा-स्मार्ट लड़कियों की व्यस्तता देखती हूँ, उन लोगों की स्वनिर्भरता और मौलिकता देखती हूँ, तो मुझे ख़याल आता है कि इंसान के रूप में जिंदा रहने का, इन लोगों को भी पूरा-पूरा हक़ नहीं है। ये लोग भी जुल्म की शिकार हैं, निर्यातित हैं। अगर ऐसा न होता, तो वह औरत, जो ज़रिख के कार्यक्रम में मुझसे मिलने आयी थी और मेरे साथ-साथ रोयी, वह क्या सिर्फ मेरे दुःख तकलीफ पर रोयी। उसे क्या अपने दुःख पर रोना नहीं आया था?
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ