जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
“आप लोग क्या यह कहना चाहते हैं कि मेरी सुरक्षा के लिए इस ज़ूरिख शहर में इतने-इतने तोप लाकर, हवाई अड्डे को घेरे रखेंगे? मंज़र देखकर तो ऐसा जाहिर होता है कि जंग छिड़ गयी है।"
"यह फैसला ऊपर वालों का है।" किसी अंगरक्षक ने कहा।
"आप लोगों का ऊपर वाला क्या दुनिया का अव्वल नंबर वुद्ध है या पागल?" मैं फिर दहाड़ उठी, “देखकर तो ऐसा लगता है, जैसे बुद्धिमान हैं, पर यह सीधी-सी बात, आप लोगों के भेजे में क्यों नहीं घुसती कि मुझे ऐसी निर्लज्ज सुरक्षा की ज़रूरत नहीं है। बांग्लादेश में जो मुल्ले मुझे मारना चाहते हैं, ये लोग क्या सोचते हैं कि वे मुल्ले मुझे मारने के लिए यहाँ आ धमकेंगे? इस ज़रिख में? उन मुल्लों को क्या पता भी है कि स्विट्ज़रलैंड देश कहाँ है? वे क्या, उनके बाप तक को क्या पता है कि मैं कहाँ हूँ? नहीं, उन लोगों को नहीं पता है, लेकिन मुझे इस क़िस्म का कांड ज्ञानहीन सुरक्षा देने से, आपका तो कुछ नहीं आता-जाता, प्रमुख रूप से उन लोगों की ही विजय है।"
मज़ाक करने के लिए क्या इन लोगों को और कोई जगह नहीं मिलती? मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी। मुझे गुस्सा आने लगा। मुझे डर लगा। मुझ जैसी मामूली इंसान के लिए ऐसा असाधारण इंतज़ाम किया गया था। मन-ही-मन मैं ग्लानि भी महसूस करती रही। मेरी वजह से देश का कितना ख़र्च हो रहा है, यह सोच-सोचकर मुझे भयंकर परेशानी होती है। मैंने सुरक्षा फौज को आगाह किया कि वे लोग अपने आला कमान को सूचित कर दें कि मुझे किसी सुरक्षा की ज़रूरत नहीं है। यह ख़बर सुनकर सुरक्षा का सबसे बड़ा अधिकारी मुझसे मिलने आ पहुंचा और उसने अनुनय-विनय के लहजे में कहा कि जब तक मैं स्विट्ज़रलैण्ड में हूँ, तब तक उन पर मेहरबानी ही सही, यह सुरक्षा-व्यवस्था क़बूल करूँ।
“यह तो मच्छर मारने के लिए तोप दागने जैसा है। सुरक्षा-उत्पात कम करें। इतनी सारी गाड़ियों की ज़रूरत नहीं। यह पों-पों हॉर्न बजाना बेहद बुरा है।"
आयोजकों ने तमाम आयोजित कार्यक्रमों की सूची मुझे पहले ही थमा दी थी। कहाँ, कब, क्या कार्यक्रम है, इसकी सूची दुबारा फाइल-बंद करके सौंप गए । कार्यक्रमों का आमंत्रण-पत्र, संगठन का उद्देश्य-विधेय, अखबारों की क्लिपिंग्स, और कई तरह के कागजात! मैंने फाइल एक ओर हटा दी और बाथटब में झाग बनाकर, मैं आँखें मूंदे लेटी रही। इतना-सा वक्त मेरा अपना है, लेकिन यह भी मेरा नहीं रहा, क्योंकि फोन बज उठा। बाथरूम में लेटे-लेटे ही, झूलते हुए फोन से मैंने बात की। मुझे अगले पंद्रह मिनट में तैयार हो जाना था। दोपहर का लंच लेने जाना है। ज़रिख के गण्यमान्य सज्जन, राजनीति, साहित्य, संस्कृति के लोग मेरे साथ होंगे। खैर, अब तक इतने बड़े-बड़े लोगों को देख चुकी हूँ कि अब कोई भी खास बड़ा नहीं लगता। उस वक्त बाथ-टव से उठकर, सफ़ेद-बुर्राक बाथरोब लपेटकर, मैंने नरम-गुदगुदे बिस्तर पर अपने को फेंक दिया। मेरी आँखों में नींद उतर आयी। पंद्रह मिनट में ठीक तरह तैयार भी नहीं हो पायी, लेकिन आयोजक बेचैनी से लाउंज में टहलने लगे। सुरक्षाकर्मी खामोशी से मेरा इंतज़ार करने लगे। मेरे दरवाजे पर भी अंगरक्षक मूर्ति बने दरवाजे पर खड़े थे। वे लोग सभी दुनिया के अन्यतम धनी देश स्विट्ज़रलैण्ड के नागरिक थे, मैं जाने कहाँ की, किसी अति-दरिद्र बांग्लादेश की प्राणी, उससे भी ज्यादा दरिद्र प्रांत मयमनसिंह की एक अति-मामूली लड़की! अगर नियम मुताबिक मेरा शादी-ब्याह आया होता तो अब तक पाँच-छह बच्चे-कच्चे जनकर पति-परमेश्वर की दासी-बांदी बनी, घर-गृहस्थी चला रही होती। वही मैं यहाँ, मौजूद हूँ और मेरी सुरक्षा के लिए तोप-कमान तैयार खड़े हैं। मैं हँसू या रोऊँ, मेरी समझ में नहीं आया। दिनोंदिन मैं बज्र मशीन तो नहीं हुई जा रही हूँ?
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