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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


इन दिनों मेरा जीवनयापन नहीं होता, आकाशयापन होता है। ज्यादातर वक्त आकाश-आकाश में गुज़रता है। ना, अब मुझे धरती पर रहने का ज़्यादा मौका नहीं मिलता। अब मेरा आकाश-जीवन शुरू हुआ है। ज्यादातर मैं आकाश में ही रहती हूँ। एक ही तारीख को अगर चार देशों का आमंत्रण है तो मुझे उनमें से एक पसंद करना होता है, फिलहाल, मेरी पसंद स्विट्ज़रलैंड है। स्विट्ज़रलैंड का आमंत्रण स्विस सरकार की तरफ से आया है। वहाँ की मानवाधिकार संस्था ने बुलाया है।

स्विट्ज़रलैंड से मुझे लेने के लिए सुरक्षा फौज स्वीडन चली आयी, जहाज के फर्स्ट क्लास की सभी सीटें उन लोगों ने खुद दख़ल कर ली थी। पीछे इकोनोमिक श्रेणी के यात्री ताक-झाँक करते रहे। ज़्यादातर यात्रियों ने मुझे पहचान लिया। जो लोग नहीं पहचान पाए. उन लोगों की बगल के यात्रियों ने बता दिया कि मैं कौन हूँ और क्यों हूँ। काफी कोशिशों के बाद भी मैं अभी तक एभा कार्लसन नाम हटा नहीं पायी। अकेले इस नाम ने मेरी काफी सारी-आज़ादी छीन ली थी। सुरक्षा फौज ने मुझे एक 'माल' के रूप में बदल दिया है! हाँ सच! जब मुझे लेकर सुरक्षा-फौज गाड़ी में सवार होती है और किसी गंतव्य की ओर रवाना होती है तो पुलिस-प्रधान अपने हेड ऑफिस के आलाकमान को सूचित कर देता है कि 'माल' अमुक गंतव्य की ओर जा रहा है, जहाँ उसे जाना था। 'माल' दाहिने नहीं, वाएँ जाना चाहता है। 'माल' ने अचानक अपना फैसला बदल दिया है, अब वह किसी कैफे में उतरना चाहता है। मैं सचमुच, आक्षरिक मायनों में सिर से पाँव तक 'माल' ही हूँ। 'माल' यानी 'पदार्थ' ! लेकिन कभी-कभी मुझे अपना आपा, काफी 'अपदार्थ' लगने लगता है।

जूरिख हवाई अड्डे पर उतरकर मैंने देखा वहाँ कोई प्राणी नहीं है, समूचा हवाई अड्डा भारी-भरकम तोपों से घिरा हुआ है। मुझे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ।

मैंने सुरक्षा घेरे पर तैनात एक रक्षक से ही दरयाफ्त किया, "हवाई अड्डे पर तोप क्यों? क्या हुआ है?"

पहले मुझे लगा कि शायद तोप और गोला-बारूद की प्रदर्शनी लगी है
सुरक्षा के लोगों ने जवाब दिया, "आपकी सुरक्षा के लिए।"

"मेरी सुरक्षा के लिए, कमान?"

"हाँ!"

मेरी दोनों बाँहें अशक्त हो उठीं। इन लोगों को मज़ाक करने की और कोई जगह नहीं मिली? आँखें मूंदकर, मैं दाँत पीसती रही। सभी लोग सीमा लाँघ रहे हैं। मेरी सहनशक्ति ने भी अब सीमा तोड़ दी।

मैं चीख उठी, “आप लोग इतना डरते क्यों हैं बताइए तो? किस बात का डर है? आप लोग इतनी सुरक्षा और बेफिक्री में जिंदगी गुज़ारते हैं कि कहीं, किसी और को मौत की धमकी दी जाती है तो आप लोग थर-थर काँपने लगते हैं। मौत की ऐसी धमकी तो हमारे गरीब देश में हर इंसान के ऊपर हर दिन लटकती रहती है! मेहरबानी करके आप लोग यह तोप-कमान रोकें। रोकिए, तोप-कमान!"

यह कहते-कहते मैं ठिठककर खड़ी हो गयी। मेरे पाँव उठने का नाम ही नहीं ले रहे थे। मेरे पाँव इसलिए नहीं चल रहे थे, क्योंकि मेरा दिमाग चल रहा था। अचानक मेरा दिमाग खाली हो उठा। दिमाग में जो कुछ था, वह एक फूंक में कहीं उड़-उड़ा गया था। मैं अपने अंगरक्षकों पर ही बरसती रही, जैसे सारा गुनाह उन्हीं लोगों का है।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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