जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
दर्शक क़तार बाँधे काफी कुछ मेरे हाथों में थमाती गयीं। कोई फिर थोड़ा-सा वक्त माँग रहा था। थोड़ी-सी बातचीत के लिए, थोड़ा-सा वक्त! लेकिन, बगल में खड़ी इयोहाना डोलन की सेक्रेटरी ने ही कह दिया कि मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है। उसने मेरा पता माँगा, लेकिन उसे पता भी नहीं दिया गया, लेकिन उनकी दी हुई स्वरचित किताब ज़रूर स्वीकार कर ली गई। एक अदद किताव! इतनी सारी उपहार सामग्रियों में कुल एक किताब! आम तौर पर मर पास कुछ भी देखने-पढने की फुर्सत नहीं होती। 'पिआनो टीचर' किताब भी मैंने खोलकर नहीं देखी। मेरे कागज-पत्तर के स्तूप में वह किताब पड़ी-की-पड़ी रही। लगभग एक युग वाद, उस किताब पर मेरा हाथ पड़ा। एल्फिडे येलिनेके का लिखा हुआ! उस लेखक को साहित्य में नोबेल पुरस्कार मिला था।
डिनर पार्टी में उस वक्त, सबके हाथों में शैम्पेन या व्हाइट वाइन का
गिलास!
हैंडशेक और अभिवादन की लगा रहे थे झड़ी, रथी-महारथी!
कोई आया था सुनने कहानी-
कैसे मैं ज़िन्दा निकल आयी, मर्दो की गुफा से!
कोई आया था ऑटोग्राफ लेने,
कोई आया था, भौहें सिर पर चढ़ाए शाबाशी या वाह-वाह देने,
कोई चुंबन लेने, कोई फूलों से हाथ भर देने,
ऐसे में सुनहरे बालों वाली एक लड़की करीब आयी,
ना उसने कोई ऑटोग्राफ लिया, न सुनना चाहा कोई कहानी-किस्सा,
उसने सिर्फ इतना ही कहा-
मैं आयी हूँ, सिर्फ एक बार, तुमसे गले मिलकर रोने-
यह कहते-कहते भर आयीं उस लड़की की आँखें,
उस पल मेरी भी छाती में तोड़कर बाँध,
उमड़ आया पूरा-का-पूरा ब्रह्मपुत्र!
मैं पूरब की, वह लड़की पश्चिम की,
लेकिन एक जैसे गहरे, हमारे तमाम दर्द,
मैं ठहरी काली-कलूटी, वह लड़की ललछौंही-दूधिया गोरी,
लेकिन एक जैसे नीले, हमारे तमाम दुःख।
रोने से पहले, हममें सुनने की ज़रूरत नहीं पड़ी,
एक-दूसरे की व्यथा,
हम तो जानती ही हैं, अपनी-अपनी कथा।
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