जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
नोवेल पुरस्कार प्राप्तकर्ता', ओले सोयेस्का, मारिया वर्गस लोसा, अँ दानियल. विलियम बॉयेड-ऐसे ही कई लोग! पूरा कार्यक्रम मेरे ही वारे में था। उन सब लोगों की यही राय थी कि तसलीमा वॉल्टेयर से भी अधिक साहसी है। मुझसे काफी अच्छे-अच्छे सवाल किए गए थे, मगर मैं ही ठीक तरह जवाब नहीं दे सकी। भूख और थकान के साथ-साथ वेहद टेंशन भी थी। पता नहीं, लाइव कार्यक्रम होने की वजह से ऐसा हुआ या किसी और वजह से। इसके अलावा फ्रेंच, अंग्रेजी और बांग्ला वगैरह में फँसकर मैं जरा वद्ध-वद्ध भी हो आई थी। दो घंटे का कार्यक्रम! वह कार्यक्रम खत्म होते ही किसी अन्य टीवी चैनल ने मेरा और ओले सोयेस्का का इंटरव्यू रिकॉर्ड किया।
मैंने ऐसा लंबा-चौड़ा, विशाल टेलीविजन केंद्र पहले कभी नहीं देखा था। रोशनी और रंगों की जैसे बाढ उमडी हई! वहाँ सब मौजद! मझे सबसे आखिर में ले जाया गया। आमंत्रित दर्शक भी वहाँ बैठे हुए! मैं दुनिया में ठीक किस जगह आ गई हूँ, मेरी समझ में नहीं आया। मेरे कानों में एक यंत्र लगा दिया गया और कहा गया, मेरे कानों में तमाम सवालों का बांग्ला अनुवाद सुनाई देता रहेगा। मैं भी जो बोलूँ, बांग्ला में ही बोलूँ। इस अजाने-अचीन्हे परिवेश में बांग्ला कहाँ से आ पड़ी!
बांग्लाभाषियों को बुलाया गया था! वही दो लड़कियाँ, जिन्हें बांग्ला कम-कम आती थी, जिन्हें स्ट्रसवुर्ग के आर्ते टीवी में आमंत्रित किया गया था। उन दोनों को ही खोज निकाला गया। वांग्ला सुनकर मैंने राहत महसूस की। बांग्ला का जिक्र आते ही अगले ही पल मुझमें थोड़ी-बहुत हिम्मत जाग उठी। चलो, अच्छा है। इस टेंशन में मुझे अंग्रेजी के शब्द खोजते हुए आँ-आँ नहीं करना होगा। पिछली रात मारे चिंता और घबराहट के मुझे नींद नहीं आई थी।
झिक झा-झा! झिक झा-झा! कार्यक्रम शुरू हो गया। शुरू में मुल्लाओं का विशाल जुलूस दिखाया गया, हबीबुर रहमान का फतवा दिखाया गया। वांग्लादेश के तुमुल तांडव के समय, वहाँ जाकर लिए गए दृश्य! फ्रेंच डॉक्यूमेंटरी का भी एक खास हिस्सा दिखाया गया। उसके बाद मुझसे सवालों का दौर शुरू हुआ!
...वे सब दिन मैंने कैसे गुजारे? अब मैं किस हाल में हूँ? मेरे देश की क्या स्थिति है? मैं क्या सचमुच किसी दिन अपने देश लौट सकूँगी? मेरी राय में मेरे देश में इस्लामी कट्टरवाद क्यों बढ़ रहा है? इसमें सरकार की क्या भूमिका है?
मैं जितना कुछ जानती थी, जितना कुछ विश्वास करती थी, मैंने बताया। मुझे पक्का विश्वास है कि मेरी बांग्ला का, फ्रेंच भाषा में सही अनुवाद नहीं हो रहा है। मैं समझ गई, कट्टरवाद शब्द का अर्थ, यह मुनिया रानी नहीं जानती, जिसके पिता आज से चालीस साल पहले इस देश में चले आए थे। इस देश में आकर इस देश की लड़की से विवाह करने के बाद उन्होंने जिस आधी-फ्रेंच, आधी-भारतीय को जन्म दिया, जिसने वाद में किसी कॉलेज-विश्वविद्यालय के ओरिएंटल स्टडीज के जरिए वाप की संस्कृति के प्रति प्यारवश दो कलम हिंदी पढ़-सीख ली और अपने को भारतीय उपमहादेशों की सभी भाषाओं की अनुवादक मान लिया, उस अनुवादक मुनिया रानी को मैं परख चुकी हूँ। जब मैं बांग्ला में कुछ कहती हूँ तो वह झटपट उसे हिंदी में लिख लेती है।
फ्रांस एक खूबसूरत देश है। मैं फ्रांस में रहती हूँ। मेरा घर बड़ा है। मैं भात खाती हूँ।...मेरा ख़याल है कि इसी किस्म के छोटे-छोटे वाक्यों के अनुवाद के अलावा इस मनिया रानी के लिए और कुछ संभव नहीं है। मेरे वाक्यों का अनुवाद स्टूडियो में गूंजता रहा और वह मेरे कानों में बजता रहा। मैं पाँच वाक्य कहती थी, तो वह कुल एक वाक्य का अनुवाद करती थी। वह भी अटक-अटककर! मुनिया रानी जहाँ की तहाँ अटकी रही। असल में ये लोग कोई प्रोफेशनल अनुवादक नहीं हैं। ये लोग समझती हैं कि बांग्ला-फ्रेंच के लिए प्रोफेशन की जरूरत नहीं पड़ती। मेरे भीतर की धक-धक खत्म हो गई। अब मुझे गुस्सा आने लगा। मैं जो बोल रही हूँ, वह इंसान की समझ में ही न आए तो क्या फायदा? इधर समूचा फ्रांस देश, मैं क्या कहूँगी, यह सुनने को कान लगाए बैठा है। बाकी लोग, तसलीमा के प्रसंग में कट्टरवाद, वांग्लादेश, समस्या, समाधान, राजनीति, अर्थनीति वगैरह पर किए गए सवालों का जवाब देते रहे।
उनका एक सवाल मेरी समझ में नहीं आया।
मैंने बुद्ध की तरह कहा, “आप क्या अपना सवाल दुबारा दुहराएँगे?"
लेकिन मुझसे अपना सवाल दुहराने के बजाय, 6 मारी ने किसी और से सवाल किया। मुझे अपने पर बेहद गुस्सा आया, लेकिन अब क्या उपाय? वे दोनों अनाड़ी लड़कियाँ खुद भी बौखलाकर खामोश हो रहीं। वे दोनों मुझे खास कुछ दे नहीं पा रही हैं, मुझसे कुछ ले भी नहीं पा रही हैं। इसके बजाय अगर अंग्रेजी से फ्रेंच में अनुवाद का इंतजाम किया जाता, तो बेहतर होता, लेकिन यह फ्रांस देश है। यहाँ अपनी-अपनी भाषा का सम्मान करने का रिवाज़ है। ये लोग अंग्रेजी भाषा अंग्रेज जाति को विल्कुल पसंद नहीं करते। भूमंडलीकरण के दवाव में पड़कर अंग्रेजी ग्रहण करने को ये लोग लाचार ज़रूर हैं, लेकिन इस भापा के लोगों का अगर वश चले, तो ये लोग कभी उस भाषा को अपनी जुवान पर न लाएँ।
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