जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
पैरिस हवाई अड्डे पर उतरकर देखा वहाँ लंवा-चौड़ा इंतजाम किया गया था। मुझे विमान से अलग सीढ़ी से उतारा गया। वहाँ से उतारकर, सीधे गाड़ी में! मेरी गाड़ी जब चल पड़ी तो मैंने देखा, आगे-पीछे गाड़ियों की लंबी कतार! सबसे आगे, वर्दीधारी पुलिस की आठ-आठ मोटर साइकिलें। मैंने पहले ही सुन रखा था कि फ्रांस में पुलिस की संख्या ज्यादा होगी, लेकिन इतनी ज्यादा? चारों तरफ खोजी कुत्ते! जितनी दूर तक नजर गई पुलिस की वर्दी में पुलिस-ही-पुलिस! सभी सजे-धजे! मेरे मन में अजब-सा खौफ जाग उठा, मानो विश्व-विजय के बाद राजा अपने राज्य में लौटा हो। उसके स्वागत में पाइक-प्यादा फौज-सामतों से समूचा मैदान घाट, शहर-वदर सजा दिया गया हो। यह सब आखिर हो क्या रहा है? मेरी छाती धड़क उठी। पुलिस मुझे किसी बड़े से हॉल में ले गई। समूचे हॉल में लोगों की ठसाठस भीड़! वहाँ एक बड़ी-सी मेज बिछी हुई! मेज के बीचों-बीच अनगिनत माइक्रोफोन! दुनिया में कहीं, कोई प्रलयंकारी घटना हो जाए तो किसी विराट प्रेस कॉन्फ्रेंस में जैसे पत्रकारों का कुलवुलाता हुआ झुंड आकर वक्ता के सामने अनगिनत माइक रख जाता है, यहाँ भी बिल्कुल वैसा ही दृश्य! लेकिन इस दुनिया में ऐसा क्या घट गया है कि मुझे यँ कठघरे में खड़ा कर दिया गया है? वैसे इसे कोई कठघरा नहीं, सिंहासन ही कहा जाएगा। मैं सिंहासन पर क्यों बैठू? किससे पूछू? मारे डर के उस वक्त भी मेरी धड़कनें तेज़ हो आईं। सैकड़ों-हजारों पत्रकार मेरे सामने! इस प्रेस-कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था-रिपोर्ट्स सां फ्रन्टियर्स और फ्लाक और नोबेल ऑब्जर्वेतर ने! दुनिया भर में जहाँ कहीं भी पत्रकारों पर हमला होता है, रिपोर्ट्स सां फ्रन्टियर्स, उन पत्रकारों को बचाता है। यह संगठन पेडिसं सां फ्रन्टियर्स की तरह है। दुनिया में जहाँ कहीं लोग रोग के शिकार होते हैं, यह संगठन वहाँ जाकर बीमारों का इलाज करता है। फ्लॉक, फ्रांस में किताबों की सबसे बड़ी आधुनिक दुकान है। फ्लाक हर शहर में मौजूद है। अब तो फ्रांस की भी सीमा के पार, यूरोप के कई देशों में, यह नजर आने लगा है। नोवेल ऑब्जर्वेतर फ्रांस की सर्वाधिक उन्नत स्तर की साहित्य-संस्कृति, राजनैतिक-अर्थनैतिक विषयों की पत्रिका है। ये तीनों ही इस कार्यक्रम के आयोजक हैं। मुझे भी कुछ वोलना था, लेकिन मैं क्या बोलूँ, यह मैं नहीं जानती थी। मुझे शायद पाँच-दस मिनट बोलना है- "फ्रांस में आकर मुझे वेहद अच्छा लग रहा है। आप लोगों ने पासकोवा के फैसले के खिलाफ जो संघर्ष किया, उसके लिए मैं आप सवका आभार प्रकट करती हूँ। मुक्त विचारों की आजादी के पक्ष में आज अगर फ्रांस न खड़ा हो, तो और कौन-सा देश खड़ा होगा? फ्रांस ही तो इन सबका उदाहरण रहा है। आज भी भला क्यों नहीं होगा? आप लोगों ने कोई नाइंसाफी कबूल नहीं की, इसलिए मुझे आप लोग नितांत अपने लग रहे हैं। अपने देश में मैंने भी किसी नाइंसाफी, अन्याय के आगे सिर नहीं झुकाया इसलिए मुझे निर्वासित कर दिया गया...।"
ना, यह सब मैं लिखकर नहीं लाई थी। मुझे इसकी सलाह भी किसी ने नहीं दी। मेरे पास पहले का एक रूखा-सूखा-सा लेख पड़ा हुआ था। वहीं मैंने समवेत सुधिजन और पत्रकारों के सामने पढ़ दिया। उन लोगों को भी लाचारी में सुनना पड़ा। मेरे वक्तव्य में फ्रांस के पासकोवा और वीसा का कोई उल्लेख नहीं था। उसमें फ्रांस के साहित्य और संस्कृति का जिक्र था। फ्रेंच संस्कृति के साथ, हमारी वंगाली संस्कृति के मेल का जिक्र था। उस वक्तव्य में एक जुमला उल्लेखनीय है-जाने कब तो किसी ने कहा था कि दुनिया में हर इंसान की दो मातृभूमि होती हैं। एक तो उसकी अपनी मातृभूमि, जहाँ वह जन्म लेता है और दूसरी-'फ्रांस!' हाँ, फ्रांस का यह प्रतिवादी रूप देखकर मैं सच ही मुग्ध थी। फ्रांस के लोगों के साथ एकात्म-बोध मैं कर ही सकती हैं। फ्रांस मुझे नितांत अपना लग ही सकता है। हाँ, इस देश ने मुझे अपना विराट आश्रय और सुरक्षा का अहसास तो दिया ही है।
अब निखिल सरकार भी मुझे यह सलाह नहीं देते कि मैं एक निर्वासित लेखिका हूँ। यह वात मैं छिपाएँ रखू। अब वे मुझे लोगों को यह बयान देकर धोखा देने को नहीं कहते कि मैं यूरोप में आराम करने और लिखने आई हूँ। अब शायद उन्हें यह अंदाजा हो गया है कि सहसा देश लौटना मेरे लिए संभव नहीं है। इसके अलावा जब भीतरी सच लोग जान ही गए हैं, जब यह खबर चारों तरफ आम हो चुकी है कि मैं अपने देश से निर्वासित लेखिका हूँ, पश्चिम के आश्रय में आई हूँ, वहाँ आराम-आराम की रट लगाती रही तो और कछ तो नहीं होगा. मझे लोग 'झठी' समझ लेंगे। अगर मैं सच ही आराम करने ही आई होती, तो अब तक लौटकर देश क्यों नहीं गई? इतने दिन हो गए, अपने देश कहाँ लौटी? निखिल सरकार ने सोचा था कि मुझे देश में वापस बुलाने के लिए आंदोलन छिड़ जाएगा। यह उनकी नितांत आलीक कल्पना थी। मुझे तो पता था कि इस बारे में कोई आंदोलन कभी, किसी काल में भी नहीं होगा। निखिल सरकार विराट बुद्धिजीवी हैं मगर जब तक किसी देश के समाज में दीर्घ वर्षों तक रहा-सहा न जाए, उस समाज का असली चेहरा कभी पहचाना नहीं जा सकता। वैसे भी महज बुद्धि बल पर की हुई भविष्यवाणी अक्सर गलत साबित होती है। वे सटीक अंदाज़ा नहीं लगा पाए।
बांग्लादेश में अब तक किसी एक भी बंदे की जुबान से यह नहीं निकला कि घर की लड़की, अव घर लौट आए। तसलीमा को अब वापस ले आया जाए।" सभा लाग अपन ढंग से जी रह है। अपन-अपन ढग स सुखी हैं। किसी को पल-दो-पल की भी फुर्सत नहीं है कि वह तसलीमा के बारे में सोचे। वहाँ हर रोज़ जाने कितनी तसलीमा दम तोड़ देती हैं, वहाँ किसको गरज पड़ी है कि वह तसलीमा को वापस लाने की कोशिश करें।
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