जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इसके बाद सुनने में आया कि फ्रांस में भयंकर काण्ड हुआ है। समूचे देश में भीषण तहलका मचा हुआ है। खबर आग की तरह फैल गई है। हर टेलीविजन, रेडियो, अखबारों की हेडलाइन है-"फ्रांसीसी सरकार ने तसलीमा को वीसा नहीं दिया। कुल 24 घंटे का वीसा देना चाहा था। तसलीमा ने मना कर दिया।" वाकई भयंकर तांडव मचा था। तुमुल ताण्डव! बेर्नार्ड पीभो का मशहूर कार्यक्रम! इस कार्यक्रम में मुझे शामिल करके तैयार करना था, बेर्नार्ड पीभो ने मेरी अनुपस्थिति में ही कर डाला। पीभो की बगलवाली कुर्सी खाली रही। उस कुर्सी पर मेरे बैठने की बात थी। उस कुर्सी को खाली रखा गया और कैमरा बार-बार उस खाली कुर्सी पर फोकस करके कार्यक्रम दिखाया गया। सरकारी फैसले के खिलाफ पीभो का यह प्रतिवाद बेजोड़ है। पीभो के कार्यक्रम का विषय था, मेरे फ्रांस जाने देने में रुकावट डालना! फ्रांस के कलाकार, साहित्यकार और आम जनता गुस्से में आग-बबूला हो उठी। फ्रांस देश हमेशा से ही लेखकों को आश्रय देता आया है। हमेशा से मुक्त विचार और वाक्-स्वाधीनता का पक्षधर रहा है। इसी फ्रांस ने उस लेखिका के मुँह पर दरवाजा बंद कर दिया, जो अपनी राय जाहिर करने और वाक्-स्वाधीनता के लिए संघर्ष कर रही है और अपने देश से निर्वासित है। जिस लेखिका के साथ समूची दुनिया हमदर्दी जता रही है, जिसे सभी देश आमंत्रित कर रहे हैं, जिसे राजनैतिक आश्रय देने के लिए उत्तरी यूरोप में रस्साकशी चल रही है। फ्रेंच सरकार का यह जघन्य फैसला, समूचे फ्रांस के लिए अपमानजनक है। यह हम सबके लिए शर्म की बात है। प्रचार-माध्यमों में फ्रेंच सरकार की निंदा का दौर, हर दिन जारी है। गृहमंत्री शार्ल पासकोवा की बुरी तरह भर्त्सना की जा रही है। उन्हें कठघरे में खड़ा किया गया। पत्रकारों ने उन्हें वर की तरह धर दबोचा। पासकोवा ने अपनी सफाई में सिर्फ एक ही जवाब दिया-“तसलीमा की सुरक्षा के ख़याल से उसके वीसा का वक्त कम कर दिया गया था।" पत्रकारों ने छूटते ही उन पर अगला सवाल दागा-"स्टॉकहोम, ऑस्लो, स्टावांगर, लिसवॉन उनके लिए सुरक्षित हो सकता है। पैरिस उनके लिए सुरक्षित नहीं था? क्यों?"
गृह मंत्रालय को इस वजह से जवर्दस्त झटका लगा। टेलीविजन पर पासकोवा के कार्टून दिखाकर, उनका अपमान किया जाने लगा। पासकोवा की कुर्सी तक डगमगाने लगी। वाकई यह अविश्वसनीय घटना है। अखबारों में सिर्फ पहला ही पन्ना नहीं, अंदर कई-कई पन्ने, इस खवर की आलोचना में पंचमुख हो उठे। नहीं, इनमें चर्चा का अहम विषय मैं नहीं हूँ। अहम विपय है, फ्रांस और साहित्यकारों के प्रति फ्रांस का दायित्व और कर्त्तव्य ! दुनिया के सामने, फ्रांस जो दो-एक विषयों में, सबके सामने शान से सिर उठाए खड़ा है, देश के उस गौरव को धूल में मिलाने का हक उस नासमझ पासकोवा को क्या सच में है, इस मुद्दे को लेकर बहस-मुवाहसे! मैं अवाक्! किसी को फ्रांस में दाखिल होने न देना, राष्ट्रीय अपमान की खवर कैसे बन सकती है? फ्रांस के दूतावास तो तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों के हजारों-हजार वीसा-प्रार्थियों को वापस लौटा देता है। उसकी खबर भला कौन रखता है? अभी कुछ दिनों पहले उस देश ने मुझे वीसा नहीं दिया और मुझे लौटा दिया। यह बहुत पुरानी कहानी नहीं है। जिल गोन्जालेज को पैरिस से बांग्लादेश जाकर वीसा का इंतज़ाम करना पड़ा था, वाद में मुझे फ्रांस ले गया। वही फ्रांस अचानक गुस्से से पागल क्यों हो उठा? इसलिए कि मैं मशहूर हस्ती हूँ? मैं मन-ही-मन हँसती रही। मैं सोचती रही, तीसरी दुनिया की किसी-न-किसी तरह पहली दुनिया में आकर अचानक मशहूर हो भी गई तो किसका क्या आता-जाता है? या यह कोई भीतरी दलगत राजनीति है? या सच ही आत्मसम्मानबोध है? या फिर मीडिया ने इस खबर को विराट बनाकर इंसान के अंदर जागरूकता भर दी है? मीडिया की क्या जबर्दस्त ताकत है! आज अगर इस ख़बर का प्रचार नहीं होता, खवर को बहुत बड़ी खबर बनाकर पेश नहीं किया जाता तो कोई जान भी नहीं पाता। यह खवर फैलने के बाद मानो दुनिया ही उलट-पलट गई। इस तुच्छ घटना ने आज आंदोलन का रूप ले लिया है।
आंदोलन का नतीजा भी भला हुआ। गृह मंत्रालय से फोन! फ्रेंच दूतावास से फोन! फ्रांसीसी राजदूत मेरे घर में हाजिर! फ्रांस का वीसा कबूल करके मानो मैं समूची फ्रेंच जाति को कृतार्थ करूँ। इस बार वीसा सिर्फ 24 घंटों के लिए नहीं था, जितने दिनों का मैं चाहूँ, उतने दिनों के लिए! सिर्फ इतना ही नहीं, मुझे फ्रांसीसी सरकार का मानवाधिकार पुरस्कार मिल रहा है। इस बारे में भी मुझे एक सरकारी-पत्र थमा दिया गया। थोड़ी-बहुत उत्तेजना भी थी क्योंकि पिछले ही दिन स्कैंडिनेवियन एयरलाइंस, एस ए एस, ने यह सूचित कर दिया था कि दोपहर ग्यारह बजे की फ्लाइट के बजाय मुझे सुबह आठ बजे की फ्लाइट से ले जाया जाएगा। फ्रांसीसी टेलीविजन क्रू, अभी दो दिनों पहले ही मुझ पर डॉक्यूमेंटरी बनाने के लिए स्टॉकहोम आई है।
यह खबर पाकर एस ए एस के मालिक ने स्वीडिश पुलिस को खबर दे दी थी कि वे लोग मुझे ग्यारह बजे की फ्लाइट से नहीं ले जाएँगे। अगर जाना है तो उससे पहले की फ्लाइट पकड़नी होगी। एस ए एस के बड़े अधिकारियों को यह आशंका है कि टीवी पत्रकारों की भीड़ देखकर मुसाफिर समझ जाएँगे कि उस विमान में तसलीमा है। वे मुसाफिर फटाफट उस विमान से उतर जाएँग। उन लोगों के मन में यह डर पैठ जाएगा कि उग्र कट्टरवादी, मुझे जान से मारने के चक्कर में समूचा प्लेन ही न उड़ा दें। आखिरकार मुझे स्वीडिश सिक्योरिटी चीफ की वात माननी ही पड़ी कि दोपहर ग्यारह की फ्लाइट से मैं नहीं जाऊँगी। मैं आठ बजे ही रवाना हो जाऊँगी, लेकिन एयरपोर्ट के प्रेस कॉन्फ्रेंस में किसी को भी यह जानकारी नहीं दी जाएगी कि मैं पहले ही पैरिस पहुँच रही हूँ। यह जानकारी न देने की भी खास वजह है। अगर पत्रकारों को पता चल गया, तो वे लोग एस ए एस की ऐसी की तैसी किए विना नहीं छोड़ेंगे। फ्रांस के सुरक्षा कर्मियों की एक टुकड़ी स्टॉकहोम आ पहुँची। वे लोग ही मुझे पैरिस ले जाएँगे। वैसे स्वीडिश सुरक्षा दल के चंद लोग पैरिस तक मेरे साथ गए।
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