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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


सिम्बल! सिम्बल ! पूरा कमरा प्रतिध्वनित हो उठा। यह शब्द समूची म्युचुअलिते में सिम्बल बन गया। पूरे कार्यक्रम में हर तरह के कट्टरवाद के खिलाफ जबर्दस्त आवाज़ उठाई गई। अल्जीरिया में कट्टरवादियों के अत्याचार से लोगों का जीवन विपन्न हो उठा है। खासकर लेखक, कलाकार और बुद्धिजीवी लोगों का! बोस्नीया में मुसलमानों की हत्या की जा रही है। एथनिक क्लिनजिंग के खिलाफ प्रतिवाद किया गया। मेरे ज़रा पीछे बैठे फिलिप बेनोवा, मेरे कान में वक्ताओं के वक्तव्यों का अनुवाद करता जा रहा था। फिलिप बेनोवा, वांग्ला से फ्रेंच भाषा में अनुवाद करता था, लेकिन मैं जो रचना लाई थी, वह अंग्रेजी में लिखी हुई थी। यहाँ अंग्रेजी पसंद करने वाले लोग ज्यादा नहीं हैं। फिलिप तो अंग्रेजी भी बखूबी नहीं जानता था। वस, यही समस्या थी। लंबे-लंबे व्याख्यान खत्म होने के बाद, मैंने धन्यवाद देते हुए बांग्ला में चंद वाक्य कहे। दर्शक खुशी से उछल पड़े। वे मेरी जुबान से, किसी और भाषा के बजाय मेरी भाषा सुनना चाहते थे।

बेर्नार्ड हेनरी लेवी ने मुझे बोस्निया की समस्या पर कुछ बोलने को कहा। मैंने मन-ही-मन कहा-गए काम से! बोस्निया की किसी खबर की मुझे जानकारी नहीं थी। मैं मंतव्य क्या देती? क्या मैं यह कह दूँ कि फिलहाल मैं कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हूँ? दर्शक क्या ज़रा अवाक् नहीं होंगे। जरूर होंगे। मुझसे उन लोगों ने किसी जबर्दस्त मंतव्य की उम्मीद की है, लेकिन उन लोगों को मझसे कछ भी नहीं मिला। लेवी खुद बार-बार बोस्निया जाकर रिपोर्ट दे रहे हैं, यूरोप में आंदोलन तैयार कर रहे हैं कि मुसलमानों को बचाया जाए, सर्व लोगों के अत्याचार बंद किए जाएँ। बेर्नार्ड हेनरी लेवी फ्रेंच-यहूदी हैं। यहूदी-मुसलमानों की दुश्मनी आज की नहीं है। लेकिन जब धर्म के संकुचित दायरे से अपने को हटाकर इंसान संपूर्ण सृष्टि के संबंध में विचार करता है, तो यह मानवीय दृष्टिकोण ही बन जाता है-शुद्ध शक्तिमान!

और लोगों के निकलने से पहले मैं बाहर निकल आई। उस वक्त आधी रात हो चुकी थी। मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा, जब मैंने देखा कि पुलिस बैरिकेड के उस पार लोग फुटपाथ पर खड़े हैं। मेरे लौटने का इंतजार कर रहे थे। मुझे देखते ही वे लोग उत्साहित आवाज़ में चीख उठे- "भो तसलीमा! बेभो तसलीमा!"

लेवी, क्रिश्चन और पुलिस के बड़े अधिकारियों ने मुझसे कहा-“उन लोगों की तरफ हाथ हिला दो!” हाथ हिलाने की मुझे आदत नहीं है। वह तो राजनीतिक नेतागण अपने उल्लसित समर्थकों की तरफ देखकर हाथ हिलाते हैं। मैं तो कृतज्ञता से सिमट आई, लेकिन किसी नेता या नेत्री की तरह हाथ उठाकर अभिनंदन ग्रहण नहीं कर सकती। मेरी अभिव्यक्ति और तरह की थी। इतने सारे लोगों का समर्थन देखकर मेरी आँखें भर आईं। लोग क्या मेरी यह बात समझ पाए? या वे लोग यही समझे वैठे हैं कि मैं वेहद अहंकारी हूँ? किसी के भी आवेग की मैं विल्कुल कद्र नहीं करती?

एलिजावेथ शिमला बुरका पहने हुए तीन मुसलमान कॉलेज छात्राओं को लेकर आ पहुँची। उन लोगों का जन्म फ्रांस में हुआ था। उनके माँ-बाप मोरक्को से आए थे। एलिजावेथ जब प्राग में मुझसे मिलने आयी थी, उसने अनुरोध किया था कि मैं कुछेक वुरकानशीन औरतों से बात करूँ। मैं राजी हो गयी थी। हमारी वातचीत शुरू हुई। वे लड़कियाँ कुरान के पक्ष में वेसिर-पैर के तर्क करती रहीं। कुछ देर उनसे बातचीत करने के बाद मैं समझ गयी कि ये लोग समझाने से नहीं समझेंगी। उन वुरका वाली लड़कियों के अंधेपन पर मुझे झुंझलाहट होने लगी। वहाँ फ्रेंच-अंग्रेजी अनुवादक भी मौजूद था। हममें जो बातचीत हो रही थी, वह मशीन पर तेजी से लिखता जा रहा था। बाद में हमारी वह बातचीत, नोबेल ऑब्जर्वेतर में प्रकाशित हुई।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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