जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
मुझसे उनकी दुवारा भेंट नहीं हुई, क्योंकि मुझे समय नहीं मिला। लेकिन एलेन गिन्सबर्ग जैसे विराट कवि किसी छोटे-से होटल में रहें और मुझ जैसी मामूली कवयित्री को सबसे बड़े होटल में ठहराया गया है, इसका क्या मतलब है? मुझ जैसी अदना इंसान की इतनी खातिर-तबाजो, मेरे पीछे इतने रुपए उँडेलने का आखिर क्या तुक है? हालाँकि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं था, लेकिन मुझे लगता रहा, जैसे सारा कसूर मेरा है। इस कसूर की वजह से जितनी शर्मिंदगी है, वह सब मेरी है। मुझे जितना-जितना ऐश्वर्यमंडित किया जा रहा है, मैं उतनी ही खाली और निःस्व होती जा रही हूँ। इस शहर में एलेन गिन्सवर्ग जैसे सशक्त विट कवि मौजूद हैं, फ्रांस के कितने लोग जानते हैं? वे लोग तो बस, यह जानते हैं कि तसलीमा इस शहर में मौजूद है। वे लोग शहर की दिशा-दिशाओं में 'ब्रेभो तसलीमा' के उल्लसित नारे लगा रहे हैं। मेरे लिए आधा पैरिस बंद रखा गया है। मुझे तो यह ताज्जुब है कि इंसान अव तक गुस्से से आग-बबूला क्यों नहीं हुए।
रात को 'म्युचुअलिते' में कार्यक्रम! 'म्युचुअलिते' पैरिस की मशहूर जगह है। किसी ज़माने में तमाम मशहूर राजनेता यहाँ सभा-मीटिंग के लिए आया करते थे। प्रसिद्ध कलाकार, साहित्यकार, दार्शनिकों की मीटिंगों के लिए भी यह प्रिय जगह थी। यहाँ के कार्यक्रम आयोजक हैं, फ्रांस के जनप्रिय साहित्यकार और दार्शनिक गण! काफी आकर्षक और शानदार कार्यक्रम! मेरी गाड़ी का काफिला फ्रांसीसी साहित्य-संस्कृति के अन्यतम पीठ स्थान, उस म्युचुअलिते तक जा पहुंची। सड़क पर गाड़ियों की कोई आवाजाही नहीं। वैरिकेड के पास ही लोग! फुटपाथ पर हज़ारों-हज़ार लोग! 'त्रैभो तसलीमा' का नारा लगाते हुए।
फ्रेंच दार्शनिक बेर्नार्ड हेनरी लेवी, मेरे स्वागत के लिए गाड़ी के करीव आ पहुँचे। मुझे गले लगाते हुए पहले फ्रेंच कायदे के मुताबिक मेरे गालों पर उन्होंने चट-चट की आवाज़ करते हुए चुंबन लिया।
पुलिस वैरिकेड के उस पार खड़े लोगों की तरफ इशारा करते हुए कहा, "वे इतने सारे लोग तुम्हें देखने के लिए खड़े हैं। इन लोगों को अंदर नहीं घुसने दिया। इन लोगों को टिकट नहीं मिली। अंदर छह हजार लोग जमा हैं। एक भी सीट खाली नहीं है। बहुत पहले ही सारी टिकटें बिक गईं। अंदर लोग शाम चार बजे से ही तुम्हारे आने की राह देख रहे हैं।"
उस वक्त रात के दस बजे थे।
मैं क्या करूँ, यह मेरी समझ में नहीं आया।
लेवी जब पीछे के दरवाजे से ग्रीन-रूम से होते हुए मुझे मंच पर ले गए तो मुझे देखकर 'म्युचुअलिते' के छह हजार लोग खड़े होकर तालियाँ बजाने लगे। मैं कल्पना भी नहीं कर सकती कि यह दृश्य मेरे लिए है! इस तरह खड़े होकर, तालियाँ बजाते हुए मेरा ही अभिनंदन किया जा रहा है, ना, कोई भी बैठ नहीं रहा है। मंच पर बैठे हुए फ्रांसीसी साहित्यकार, दार्शनिक भी खड़े-खड़े तालियाँ बजा रहे थे। मैं मंच पर खड़ी थी और मेरा सिर धीरे-धीरे नीचे झुकता गया। मेरी आँखें मूंदने लगीं। मेरी आँखों में सचमुच आँसू आने लगे। लम्बे-लम्बे समय तक लगातार पंद्रह मिनटों तक या आध घंटे तक, इसी तरह खड़े-खड़े तालियाँ बजाते रहने के बाद, छह हजार लोग बैठ गए। मैं भी बैठ गई। किसी भी इंसान के जीवन में इससे बढ़कर और क्या प्राप्ति हो सकती है? मैं मन-ही-मन बुदबुदा उठी, अब मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मेरा जन्म, विषमता के खिलाफ मेरी तमाम लिखा-पढ़ी, मुक्त सोच-विचार के लिए मेरी सब जंग, इस 'म्युचुअलिते' के छह हजार फ्रांसीसी दर्शकों और टिकट न पाकर सड़कों पर खड़े और भी कई हजार लोगों ने सार्थक कर दिया।
मुझे बाद में पता चला कि मंच पर तमाम मशहूर फ्रेंच दार्शनिक जमा थे-फिलिप सतर, जैक जूलियर्ड, ज दानियेल, वेर्नार्ड आरी लेवी के अलावा और भी ढेरों लोग जमा थे। उन लोगों ने काफी देर तक मेरे बारे में व्याख्यान दिया। अल्जीरिया की योद्धा लड़की खालिदा मसहूदी भी वहाँ मौजूद थीं। कुछ ही सालों वाद, वह लड़की अल्जीरिया की मंत्री बनेगी। उन सभी लोगों ने मेरे पक्ष में व्याख्यान दिया। वाक्-स्वाधीनता के लिए मेरी प्रतिवादी आवाज़ का समर्थन किया। सबने समवेत स्वर में मुझे वाक्-स्वाधीनता और मुक्त-विचारों का प्रतीक घोषित किया।
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