जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
रात आठ बजे होटल रित्ज़ में डिनर! ये तमाम डिनर राजकीय होते हैं। मैं ठहरी हाथ से भात सानकर खाने वाली लड़की! ऐसे सब आयोजन-महाभोज मुझे बेहद संकोच में डाल देते हैं। ऑब्जर्वेतर के नोबेल डिनर में मुझे अँ दानियल और अन्य रथी-महारथियों की बगल में बिठाया गया। बाकी सारे कवि-लेखक मेज़ के ओने-कोने में। उनमें भी एलेन गिन्सबर्ग भी थे। मैं ठहरी छुटकी-फुटकी-सी लेखिका! मुझे लेकर इतना हो-हुल्लड़! उस विशाल-विराट कवि की ओर किसी की नज़र नहीं गई। गिन्सबर्ग अकेले-अकेले ही मानो अपने साथ थे। मेरे मन में गिन्सबर्ग से बातें करने की तीखी चाह जाग उठी, लेकिन मौका नहीं मिला। मैंने गौर किया, खाते-खाते ही वे अपना कैमरा अपनी वगलवाले व्यक्ति को थमा देते हैं और खुद पोज दे-देकर अपनी तस्वीरें खिंचवा रहे हैं। विभिन्न मुद्राओं में उन्होंने अपनी तस्वीरें खिंचाईं। मैंने तो कैमरा जैसी चीज़ को उछालकर फेंक दिया है। जो याद रहना है, याद रहेगा। यादों पर भरोसा या जीवन से वितृष्णा ने मुझे कैमरा-विमुख कर दिया है। वे गालों पर हाथ रखे, पाँव-पर-पाँव चढ़ाए अपनी तस्वीरें खिंचवाते रहे। कभी-कभी वे खुद भी उठकर कई-कई कोणों से बेहद खामोशी के साथ दूसरों की तस्वीरें भी लेते रहे। यह काम नोबेल डिनर के साथ मेल नहीं खाता। तमाम बेमेल हरकतों में उस्ताद मैं! मैं भी यह वात समझती हूँ। अव मैन सही ढंग से काँटा-छुरी थामकर खाना सीख लिया है। वाइन का गिलास भी किस तरह पकड़ना चाहिए, मैंने सीख लिया है। वाइन की किस तरह घूंट भरी जाती है, वह भी जान गई हूँ। वैसे क्या मैंने सच ही सीख लिया है? मैं सीख गई हूँ, कम-से-कम यह तसल्ली तो मैं अपने को दे ही लेती हूँ। मुझे कौन सिखाता? सबने तो यही सोच लिया है कि मुझे सव आता है। मैंने देखा, मुझे 'सब-जानकार' समझ लेने का लोगों को रोग है। जैस शिराक साहब ने मुझे कट्टरवाद-समस्या का समाधान कर देने को कहा, वैसे ही विभिन्न कार्यक्रमों में अपना वक्तव्य पेश करते हुए, मैंने देखा है, प्रश्नोत्तर पर्व में मुझसे सवाल किया गया है-अल्जीरिया में यह जो गृह-युद्ध शुरू हो गया है, उसका समाधान क्या है? ईरान में खुमैनी का पतन कैसे हो? आपका क्या ख़याल है, वासनिया में नाटो के हस्तक्षेप का फैसला क्या सही है? दुनिया का भविष्य क्या है : मैं ये सब सवाल सुनकर विस्मय से मुँह बाए रहती हूँ। इन लोगों से किसने कहा है कि दुनिया की तमाम समस्याओं का समाधान मेरे ही पास है? इन्हें किसने समझा दिया है कि दुनिया के बारे में भविष्यवाणी करनेवाली ज्योतिपी मैं हूँ या सबसे ज्यादा राजनैतिक बुद्धि मझमें ही है? मुझे तो ऐसा लगता है कि इस वक्त, राजनीति ही नहीं, किसी भी विषय में मुझे ही सबसे ज़्यादा अनुभवी और जानकार माना जा रहा है। जैसे इन सारे सवालों का जवाव मेरे ही पास है। लोग मेरी तरफ दौड़त चले आ रहे हैं। मुझे कोई रिहाई नहीं! डिनर खत्म होने के वाद, मैं एलेन गिन्सबर्ग की तरफ बढ़ आई।
“आपके साथ बातें करने का मेरा बेहद मन है! आप किस रूम में हैं, बताएँ? मैं फोन करके, आपसे मिलने का वक्त तय कर लूंगी।"
"किस रूम का मतलब?"
“मतलव इस होटल के किस कमरे में हैं?"
"मैं तो इस होटल में ठहरी नहीं हूँ। मुझे तो इन लोगों ने किसी छोटे-से होटल में टिका रखा है।"
यह सुनकर मैं शर्म से गड़ गई। आमंत्रित बड़े-बड़े लेखक-कवियों को जहाँ रखा गया है, उससे कहीं ज्यादा महँगे और बड़े होटल में मुझे ठहराया गया है। गिन्सबर्ग ने उत्साह भरी मुद्रा में अपने होटल का पता-ठिकाना और रूम नंबर लिखकर मुझे थमा दिया। उन्होंने बताया कि उनका भी मुझसे बातचीत करने का बेहद मन है। गिन्सबर्ग को नोबेल ऑब्जर्वेतर की तरफ से आमंत्रित किया गया है। 29 अप्रैल के बारे में अपनी यादें लिखने की वजह से! वे 29 अप्रैल, किताब के प्रकाशन-समारोह में आए हैं। वे किसी छोटे-से होटल में ठहरे हुए हैं, कल-परसों तक अमेरिका लौट जाएँगे। गिन्सवर्ग ने मुझे अपने अमेरिका का पता और फोन नंबर भी दिया। मैंने उनका पता-ठिकाना, फोन नंबर ले तो लिया, लेकिन उनसे संपर्क करना क्या संभव है? अपने भुलक्कड़ मन और दुनिया-जहान के प्रति मेरी निस्पृहता की वजह से ऐसे ढेरों काम हैं, जो करने से मैं रह जाती हूँ।
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