जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
|
419 पाठक हैं |
औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
सुबह-सुबह खालिदा मसहूदी तशरीफ लाईं। साथ में सवाद बेलादाद! बेलादाद ने फोन पर मुझसे वार-बार कहा था कि खालिदा मुझसे मिलने के लिए स्टॉकहोम आना चाहती हैं। मैंने उसे बताया कि उन दिनों मैं काफी व्यस्त हूँ, उन्हें समय नहीं दे पाऊँगी। अगर वे पैरिस आकर मिल लें तो बेहतर रहेगा।
बेलादाद बौखला उठा, “पैरिस में तुम्हारे प्रोग्राम के बारे में मैं जानता हूँ। तुम्हारे पास एक सेकेंड की भी फुर्सत नहीं होगी।"
मैंने उससे वादा किया कि फुर्सत में निकाल लूँगी। खालिदा, अल्जीरिया से पेरिस आई है। मेरे आग्रह पर क्रिश्चन ने आखिरकार आधे घंटे का वक्त मेरे लिए निकाल ही लिया। खालिदा सड़क पर उतरकर कट्टरवादियों के खिलाफ लड़ रही है। दो वर्षों से एक तरह से भागती फिर रही है। उसने अपनी जान, जोखिम में डाल रखी है। कट्टरवादी उसे जान से मार डालने को आमादा हैं। उसने अपनी जिंदगी के चंद तजुर्वे सुनाए और रो पड़ी।
"तुमसे अपने सारे तजुर्बे बयान करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि तुम तो समझ ही सकती हो कि हम लोग किस हाल में हैं।"
खालिदा से कुछ देर और बात हो पाती तो मुझे अच्छा लगता, लेकिन वक्त नहीं है। मुझे फन्याके जाना है। वहाँ के पाठक मेरा इंतजार कर रहे होंगे। फन्याके का हॉल-कमरा खास बड़ा नहीं है. इसलिए समूचे ग्यारह मंजिली. फ्लैक बिल्डिंग में टेलीविजन फिट किए गए हैं। जो लोग हॉल-कमरे में घुस नहीं पाएँगे, वे लोग टेलीविजन के पर्दे पर मुझे देख सकेंगे। फन्याके पहुँचकर मैंने देखा कि अंदर के कमरे में किताबों के ढेर लगे हुए हैं। उन सभी किताबों पर दस्तखत करना था। 'लज्जा' का अनुवाद प्रकाशित हो चुका है। 'लज्जा' की ही प्रतियाँ रखी हुई थीं। मैंने कुछेक किताबों पर दस्तखत किए। उसके बाद जैसे ही मैं पाठकों के सामने आई, कमरे में छत-तोड़ तालियाँ गूंज उठीं। बहुतेरे लोग कमरे से बाहर ही खड़े थे, अंदर जगह नहीं थी। मंच पर भी मेरी सीट के सामने वाली मेज पर किताबें रखी हुईं। पाठकों ने मुझे अभिनंदन ज्ञापित किया। मैंने थोड़ा-बहुत कुछ कहा। मैं कुछ बोलने के लिए तैयारी करके नहीं आई थी। मेरे मामूली से वक्तव्य से कोई भी तृप्त नहीं हुआ। असल में खुद कुछ बोलने के बजाय, सवालों का जवाव देने में ज्यादा सहूलियत महसूस करती हूँ। पाठकों ने सवाल किए भी!
अल्जीरिया की एक औरत वातें करते-करते रो पड़ी।
उसने कहा, “तुम हम सबके लिए कितनी बड़ी प्रेरणा हो, यह तुम भी नहीं जानतीं।"
एक फ्रेंच महिला ने शिकायत की, “मेज़ पर सिर्फ 'लज्जा' रखी गई है, 'फाम मेनिफेस्टिवो' कहाँ है?"
मैंने आयोजकों से अनुरोध किया, औरतों पर लिखी हुई वह किताव भी मेज़ पर रख दी जाए। वह किताव ‘एडीशन द फाम' से प्रकाशित हुई थी। इस वात से लड़कियाँ खुश थीं। कार्यक्रम खत्म होने के बाद, दर्शक-श्रोताओं में मुझसे सिर्फ हाथ मिलाने के लिए शोरगुल, चीख-पुकार मच गई। वे लोग मेरा ऑटोग्राफ लेने और एकाध बातें करने के लिए उमड़ पड़े, लेकिन, पुलिस ने सामने का हिस्सा घेरे रखा।
इसके बाद फ्लाक द्वारा आयोजित लंच! वहाँ से किसी रेस्तराँ में जाना था, वह भी पिछले दरवाजे से! वहाँ से पेरिस के फन्याके गए। वहाँ से मेरी और भी एक किताब, एडीशन द फाम से प्रकाशित हुई थी-फाम मेनिफेस्टेभू! किताब देखकर मेरा मूड खराव हो गया। मेरी 'निर्वाचित कलाम' किताव से, धर्म-संबंधी मंतव्य, चिमटी से चुन-चुनकर निकाल दिया गया था। उसके बाद किताब छापी थी। खैर, इस वक्त यह सब सोचने का समय नहीं था। किताब खरीदने वालों की लंवी कतार लगी हुई थी।
होटल में कुछ देर आराम करने के बाद टी.वी. फाइव जर्नल! उस चैनल में मेरा जो इंटरव्यू लिया गया, उसका कुछ हिस्सा पिछली अप्रैल को भी लिया गया था, लेकिन इस बार का आयोजन काफी शानदार था।
|
- जंजीर
- दूरदीपवासिनी
- खुली चिट्टी
- दुनिया के सफ़र पर
- भूमध्य सागर के तट पर
- दाह...
- देह-रक्षा
- एकाकी जीवन
- निर्वासित नारी की कविता
- मैं सकुशल नहीं हूँ