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जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो

मुझे घर ले चलो

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :359
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 5115
आईएसबीएन :81-8143-666-0

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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान


कुछ देर आराम करने के लिए रित्ज होटल वापस आना पड़ा। आराम करने के बाद शाम को ल्यूभर म्यूजियम! सबसे ज्यादा अचरज की बात यह थी कि ल्यूभर में मेरे लिए प्राइवेट दौरे की व्यवस्था की गई थी। उस वक्त किसी पब्लिक को अंदर नहीं आने दिया गया। म्यूजियम दिखाने के लिए ल्यूभर के डायरेक्टर खुद मेरे साथ थे। वे हर तस्वीर, हर मूर्ति के बारे में शुरू से अंत तक का हवाला देकर पूरा इतिहास बताते रहे, मानो कहीं जरा-सी भी भूल-चूक हो गई, तो उनकी नौकरी चली जाएगी। वे मुझे खुश करने के लिए अतिरिक्त सजग थे। ल्यूभर की सीढ़ियों की हर छाप पर पुलिस, तरह-तरह की मुद्राओं में खड़ी थी। वह सब देखकर क्रिश्चन और मैं आँखों-ही-आँखों में काफ़ी देर हँसते रहे।

बाद में क्रिश्चन ने मेरे कान में फुसफुसाकर कहा, "तुम्हारे पीछे-पीछे दो-दो डॉक्टर घूम रहे हैं, अगर कहीं तुम बीमार हो जाओ, तो..."

लो, देखो तमाशा!

वैसे ल्यूभर में पहले भी देख चुकी हूँ। उस बार मैं दोमिनिक और अँ शार्ल वर्थेयर के साथ आई थी। थोड़ा-सा ही हिस्सा देखा था कि ल्यूभर के बंद होने का वक्त हो गया। वाकी हिस्सा नहीं देख पाई, लेकिन इस वार? सारे बंद दरवाज़े अकेले मेरे लिए खुल गए। मुझे सुख-चैन देने के लिए दर्शकों के लिए दरवाजे बंद कर दिए गए। वाकई इन लोगों ने हद कर दी।

सिर्फ क्या पैरिस के रास्ता-घाट बंद कर दिए गए थे? पूरा-का-पूरा ल्यूभर बंद कर दिया गया। उस वक्त वहाँ कोई दर्शक नहीं रह सकेगा। वजह? क्योंकि उस वक्त ल्यूभर मैं देखूगी। इन सब कीर्ति-कलापों की जानकारी मुझे पहले नहीं दी गई थी। बहरहाल ल्यूभर म्यूजियम से दर्शकों को खदेड़ दिया गया। सैकड़ों पुलिस वालों ने आकर ल्यूभर को घेर लिया। म्यूजियम के अंदर वर्दीधारी पुलिस, बड़ी-बड़ी राइफल थामे खड़ी हो गई। सादी पोशाक में भी पुलिस पोजीशन लेकर खड़ी रही। अब मैं जाने कहाँ की रानी-महारानी तशरीफ लाई, जिसे म्यूजियम दिखाने के लिए खुद क्यूरेटर साहव मौजूद थे। मैं जो भी देखना चाहूँ, वे मुझे दिखाने को तैयार थे। मैं उस तरफ वढ़ गई, जिधर मिस्र की कला-कारीगरी प्रदर्शित की गई थी। उन सज्जन ने उस कला के बारे में लंवा-चौड़ा व्याख्यान दे डाला।

“आप क्या कुछेक इस्लामी कला देखना चाहेंगी?" उन्होंने पूछा।

"अच्छा? इस्लामी कला भी कुछ होती है? इस्लाम मैं तो इंसान की तस्वीरें बनाना वर्जित है।"

“खैर, तस्वीरें बनाना भले वर्जित हो, लेकिन जीवों के अलावा भी इस्लामी कला वेहद खूबसूरत है।"

“कला सिर्फ कला होती है। आप कला को किसी धर्म के नाम से क्यों जोड़ रहे हैं? पश्चिम की पेंटिंग या तस्वीरों को क्या आप ईसाई कला कहेंगे? हरगिज नहीं कहेंगे। एक-एक अंचल में एक-एक किस्म की कला प्रचलित है। उन्हें अंचल के आधार पर बाँटा जाना चाहिए! फर्ज करें, इस्लामी कला! बांग्लादेश में ज्यादातर मुसलमान बसे हैं। इस वजह से क्या सऊदी अरब के मुसलमानों द्वारा आँकी गई तस्वीरें और बांग्लादेश के मुसलमानों द्वारा आँकी गई तस्वीरों में कहीं, कोई मेल हो सकता है? नहीं हो सकता। हाँ, किसी कला की निशानदेही के लिए धर्म कहाँ आता है? अगर मैं किसी कला को बांग्ला कला कहती हूँ, तो इसका मतलब यह होता है कि बंगाल नामक धरती पर, बंगालियों ने वह कला रची-गढ़ी है। वह शख्स वहाँ का बंगाली, हिंदू, बौद्ध, ईसाई कोई भी हो सकता है।"

"लेकिन चाहे कुछ भी कहा जाए, इस्लामी कला नामक एक कला है तो सही!"

ना, वह कला देखने की मुझे फुर्सत नहीं थी। ल्यूभर तो मैं पहले भी देख गई हूँ। इस तरह तमाम लोगों को बाहर निकालकर इतना विराट म्यूजियम मुझे दिखाया जा रहा है, यह ख़याल आते ही मेरा जी मिचलाने लगता है। मुझ जैसी मामूली इंसान के लिए यह आयोजन शोभा नहीं देता। मेरी वजह से लोगों के प्रति अन्य वर्ताव किया जाए, यह मैं हरगिज नहीं चाहती। यह निष्ठुरता मरे नाम पर की जा रही है, मेरा मन कड़वा आया। ये लोग मुझे जितनी 'वड़ी' बना रहे हैं, मैं उतनी ही छोटी हो आती हूँ।

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    अनुक्रम

  1. जंजीर
  2. दूरदीपवासिनी
  3. खुली चिट्टी
  4. दुनिया के सफ़र पर
  5. भूमध्य सागर के तट पर
  6. दाह...
  7. देह-रक्षा
  8. एकाकी जीवन
  9. निर्वासित नारी की कविता
  10. मैं सकुशल नहीं हूँ

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