जीवनी/आत्मकथा >> मुझे घर ले चलो मुझे घर ले चलोतसलीमा नसरीन
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औरत की आज़ादी में धर्म और पुरुष-सत्ता सबसे बड़ी बाधा बनती है-बेहद साफ़गोई से इसके समर्थन में, बेबाक बयान
इसके बाद जैक तूवो! वहाँ पहुँचते ही, पहले की तरह ही पत्रकारों की भीड़ नज़र आई। भीड़ को चीरते हुए मुझे दूसरे कमरे में लाया गया। शिराक के साथ मेरी अंग्रेजी में बातचीत हुई थी। तूबो फ्रेंच में बोलते रहे। उन्होंने बंगाली दुभाषिया बुला लिया था। उनसे राजनीति, अर्थनीति, कट्टरवाद, पश्चिम-पूर्व के बारे में लंबी बातचीत हुई। इसके वाद जैसा होता रहा है, वही हुआ। पत्रकारों के सवाल-दर-सवाल! मेरे पास वक्त नहीं था। पत्रकारों की भीड़ हटाकर मुझे गाड़ी तक ले जाया गया। गाड़ी हॉर्न बजाती हुई दौड़ पड़ी। इस बीच लोग-बाग जान चुके हैं कि कौन जा रही है, क्योंकि टीवी, रेडियों की अहम खबर है-तसलीमा आई है। मेरे यहाँ आने के बाद से ही प्रचार-माध्यम इसी खबर में मग्न हो उठे हैं। सड़कों पर मुझे देखने के लिए लोगों की भीड़! कोई अगर मुझे देख लेता है तो वह दूसरों को भी दिखाता है। यूँ 'चीफ ऑफ द स्टेट' बनकर चलते हुए मुझे बेहद संकोच होता है।
मैंने क्रिश्चन से कहा, “इतनी-इतनी पुलिस तैनात करने का कोई मतलब नहीं होता।"
“भई, यह सरकार का मामला है। हम लोग इसमें कुछ नहीं कर सकते।"
“कुल मिलाकर कितनी पुलिस होगी?"
"मुझे तो यह जानकारी मिली थी कि ढाई सौ! लेकिन आज के अखबार में छपा है, बारह सौ! सिक्योरिटी-चीफ हरदम साथ होता है। यह टॉप लेबल पर जा पहुँचा है।"
मुझे उसकी बात सुनकर गुस्सा आने लगा।
मैंने कहा, "इन सबका कोई मतलब नहीं होता। मेरे लिए तो दो पुलिस वाले ही काफी थे। अगर वे लोग ज्यादा सिक्योरिटी देने पर आमादा हैं तो दो की जगह छह लोग या हद से हद दस लोग दे देते, बस्स! अरे, कोई फ्रांस में मेरा खून करने के लिए नहीं बैठा है। मैं आम लोगों से मिलना-जुलना चाहती हूँ। सड़कों पर सीधे-सादे लोगों की तरह चलना-फिरना चाहती हूँ। जवकि हो यह रहा है कि मैं उन लोगों के चेहरे पर धूल उड़ाती हुई, सर्र से गुज़र जाती हूँ। वे लोग मुझ तक पहुँच ही नहीं पा रहे हैं।"
उसके बाद वहाँ से रिपोर्ट्स साँ फ्रन्टियर्स के दफ्तर! दफ्तर के सामने गाड़ी से उतरते ही मैंने देखा, ढेरों लोग रास्ते पर खड़े हैं, तालियाँ बजा रहे हैं और कह रहे हैं-बैभो, तसलीमा!
मैं चौंक गई। मैंने सोचने की कोशिश की कि इस देश का नाम फ्रांस है। यहाँ के लोग खेतिहर-मजूर नहीं हैं। ये लोग मुझे 'ब्रेभो' कहने के लिए ही खड़े हैं। मैं ज़रा सकुचाकर ही पुलिस के साथ, तेज-तेज़ चाल से अंदर चली गई। दफ्तर में उत्साह भरा शोरगुल, धमाल! पूरा दफ्तर, घूम-घूमकर दिखाया गया। जिल तो ऑफिस में था ही। वे लोग मेरे लिए दो वर्षों से जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे। रॉबर्ट के साथ जिल की अनबन चल रही थी। इसके बावजूद रॉबर्ट मुझे खासा कर्मठ और प्रतिभावान लगा। लगभग अकेले-अकेले ही उसने यह संगठन खड़ा किया है। जब मैं आर एस एफ कार्यालय से बाहर निकली, रास्ते में फिर असंख्य लोग खड़े नज़र आए। मुझे देखते ही लोग तालियाँ बजाने लगे। ऐसा कोई दृश्य मेरे इंतज़ार में है, यह मैंने सपने में भी नहीं सोचा था।
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