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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


धर्म की पताका उड़ाकर मनुष्य और मनुष्यत्व को जिस तरह से चकनाचूर किया जा सकता है, शायद उतना और किसी चीज से संभव नहीं।

अख्तारूज्जमां ने कहा-'हाँ!'

किरणमयी दो कप चाय लेकर कमरे में आई, 'क्या आपका दर्द और बढ़ गया है? न हो तो नींद की गोली ले लीजिए।' इतना कहकर चाय का प्याला दोनों के सामने रखती हुई खुद भी पलंग पर बैठ गई।

अख्तारूज्जमां ने पूछा, “भाभी तो शायद शंखा (बंगालियों के सुहाग की निशानी सफेद चूड़ी) सिंदूर नहीं पहनती हैं न?'

किरणमयी नजरें झुकाकर बोली, 'पचहत्तर के बाद से नहीं पहनती हूँ।'

‘चलिए, अच्छा हुआ। फिर भी सावधान रहिएगा।'

किरणमयी धीरे से मुस्कराई। सुधामय के होंठों पर भी यही मुस्कराहट आयी। अखतारूज्जमां जल्दी-जल्दी चाय पीने लगे। सुधामय की छाती का दर्द कम नहीं हुआ। उन्होंने कहा, 'मैंने तो धोती पहनना कब का छोड़ दिया है। फॉर द सेक ऑफ डीयर लाइफ, माई फ्रेंड।'

अख्तारूज्जमां चाय का प्याला रखते हुए बोले, 'चलता हूँ। सोच रहा हूँ उधर से विनोद बाबू को भी एक बार देखता जाऊँगा।'

सुधामय लम्बा होकर लेट जाते हैं। उनके माथे के सामने रखी-रखी चाय ठंडी हो गयी। किरणमयी दरवाजे पर कुंडी लगाये हुए बैठी रहती है। वह जलती हुई बत्ती के उलटी तरफ बैठी हुई है। उसके चेहरे पर छाया पड़ी है। पहले वह बहुत अच्छा कीर्तन गाया करती थी। किरणमयी ब्राह्मणवाड़िया के जाने माने पुलिस अफसर की लड़की थी। सोलह वर्ष की उम्र में उनकी शादी हो गयी। शादी के बाद सुधामय उससे कहतं, 'किरणमयी, तुम रवीन्द्र संगीत सीखो। उस्ताद रख देता हूँ।' मिथुन दे से कुछ दिनों तक सीखा भी। मवमनसिंह के कई सांस्कृतिक अनुष्ठानों में उसे गाना गाने के लिए बुलाया भी जाता था। सुधामय को याद आया कि टाउन हॉल में एक बार किरणमयी गाना गाने के लिए गयी थी। उस समय सुरंजन की उम्र चार वर्ष की थी। शहर में गिने-चुने गायक थे। समीरचन्द्र दे के बाद किरणमयी गाने के लिए मंच पर आयी। सुधामय श्रोताओं की प्रथम पंक्ति में बैठे थे। उनका तो पसीना छूट रहा था, पता नहीं कैसा गायेगी। लेकिन एक भजन सुनाने के बाद दर्शक 'वन्स मोर, वन्स मोर' कहने लगे। तब उसने दूसरा भजन गाना शुरू किया। उस गाने के बोल और स्वर में इतना दर्द भरा था कि सुनकर सुधामय जैसे नास्तिक व्यक्ति की आँखों में भी आँसू आ गये।

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