जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'हाँ...।'
'आप कुछ कह नहीं रहे हैं। क्या आप सपोर्ट कर रहे हैं?'
'सपोर्ट क्यों करूँगा?'
'तो फिर क्यों कुछ नहीं कह रहे हैं?'
'बुरे लोगों ने बुरा काम किया है। इसमें दुखी होने के सिवाय क्या कर सकते हैं?'
'एक सेकुलर राष्ट्र की यदि यह अवस्था है। छिः छिः!'
‘पूरी राष्ट्रीय परिस्थिति, पूरी राजनैतिक घोषणा, सुप्रीम कोर्ट, लोक सभा,
पार्टी, गणतांत्रिक परम्परा-सब कुछ असलियत में ढकोसला ही है। चलता हूँ सुधामय वाबू, भारत में चाहे जितना भी दंगा-फसाद हो रहा हो, इस देश की तुलना में तो कम ही है।'
'हाँ। चौंसठ के बाद नब्बे में, फिर इतना बड़ा दंगा-फसाद हुआ।'
'चौंसठ न कहकर पचास कहना ही ज्यादा ठीक रहेगा।'
पचास के बाद चौंसठ में जो दंगा हुआ था उसका सबसे बड़ा पक्ष था साम्प्रदायिकता का स्पानटेनियस प्रतिरोध। जिस दिन दंगा-फसाद शुरू हुआ, उस दिन माणिक मियां, जहर हुसैन चौधरी और अब्दूस सालिम के प्रोत्साहन से हर अखवार के पहले पेज की बैनर हैडिंग थी- 'पूर्व पाकिस्तान रूखे दाड़ाओं' (पूर्व पाकिस्तान डटकर खड़े रहो)। पड़ोसी एक हिन्दू परिवार की रक्षा करते हुए पचपन वपीय अमीर हुसैन चौधरी ने अपनी जान दी थी।
'आह!'
सुधामय की छाती का दर्द और तेज हुआ। वे पलंग पर लेट गये। एक हल्की गरम चाय मिलने से अच्छा लगता। लेकिन चाय देगा कौन? सुरंजन के लिए किरणमयी चिन्तित है। अकेले ही बाहर चला गया। अगर जाना ही था तो हैदर को साथ लेकर गया होता। किरणमयी की बुरी चिन्ता ने सुधामय को भी आक्रांत कर दिया। हमेशा से ही सुरंजन का आवेग बहुत गहरा है। उसे घर में बंद करके नहीं रखा जा सकता। इस बात को सुधामय तो जानते ही हैं, फिर भी दुश्चिन्ता ऐसी चीज तो नहीं कि समझाने पर शांत हो जाये। वे इस बात को दिल में दवाये हुए अखतारूज्जमां के विषय पर लौट आये, 'कहा गया है कि शान्ति ही सभी धर्मों का मूल गंतव्य है', लेकिन उसी धर्म को लेकर इतनी अशान्ति, इतना रक्तपात। मनुष्य कितना लांछित हो सकता है, इस शताब्दी में आकर यह भी देखना पड़ा।
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