जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
आजादी के बाद किरणमयी बाहर गाने के लिए जाना नहीं चाहती थी। उदीची के अनुष्ठान में सुमिता नाहा, मिताली मुखर्जी गाएंगी। सुरंजन भी अपनी माँ से जिद्द करता था, माँ तुम भी गाओ न। किरणमयी हँसती, 'मैं कब से रियाज छोड़ चुकी हूँ, अब क्या पहले की तरह गा पाऊँगी। सुधामय कहते, 'जाओ न। आपत्ति किस बात की। पहले तो गाती थीं। लोग तुम्हें पहचानते भी हैं। प्रशंसा भी तो काफी अर्जित की है।
हां, प्रशंसा मिली है। जो लोग तालियाँ बजाते थे, वही बाद में कहते, हिन्दू लड़कियों को लाज शर्म नहीं है। इसलिए वे गाना सीखती हैं। पराये मर्द के सामने बदन दिखाकर गाना गाती हैं।'
सुधामय परिस्थिति को सम्भालते हुए कहते, 'जैसे मुसलमान लड़कियाँ गाना गाती ही नहीं हैं?'
'वह तो अब गाती हैं। पहले तो नहीं गाती थीं, इसलिए हमें बातें सुननी पड़ती थीं। मिनती दीदी इतना अच्छा गाना गाती थीं। एक दिन एक झुंड मुसलमान लड़कों ने उन्हें घेर लिया और कहा कि उनका मुसलमान लड़कियों को गाना सिखाने का इरादा है।
सुधामय ने कहा, 'तो क्या हुआ! गाना सिखाना तो अच्छी बात है।'
“उन लड़कों का कहना था, लड़कियों का गाना गाना ठीक नहीं, बुरी बात है। गाना गाने से बुरी हो जायेंगी।'
'अच्छा!'
उसके बाद से किरणमयी भी गाने पर ज्यादा ध्यान नहीं देती थी। मिथुन दे कभी-कभी कहते, 'किरण, तुम्हारा इतना अच्छा गला था, तुमने गाना छोड़ ही दिया।'
किरणमयी लम्बी साँस छोड़ती हुई कहती, 'दादा, अब कुछ भी अच्छा नहीं लगता। सोचती हूँ, गाकर क्या होगा। ये सब नाच-गाना तो लोग पसंद नहीं करते। बुरा कहते हैं।'
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