जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
केसर जमाव तोड़कर बाहर आया। फुसफुसाकर बोला, 'आयतुल मोकाररम में बाबरी मस्जिद तोड़ने को लेकर सभा होगी। लोग इकट्ठा हुए हैं, तुम घर चले जाओ।'
'तुम नहीं जाओगे?' सुरंजन ने पूछा।
केसर ने कहा, 'अरे नहीं! साम्प्रदायिक सद्भावना का जुलूस नहीं निकालना है क्या!'
केसर के पीछे लिटन और माहताब नाम के दो युवक खड़े थे। उन्होंने भी कहा, 'दरअसल, हम सब आपकी भलाई के लिए ही कह रहे हैं। सुनने में आया है कि वे लोग ‘जलखाबार' (नाश्ता) नामक दुकान को भी जला दिये हैं। ये सारी घटनाएँ आसपास में ही हुई हैं। वे अगर आपको पहचान लिये तो क्या होगा, बताइए तो! वे हाथ में छुरा, लाठी, कटार लेकर खुलेआम घूम रहे हैं।'
केसर ने एक रिक्शा बुलाया। वह सुरंजन को रिक्शे में चढ़ा देगा। लुत्फर आगे बढ़कर उसका हाथ पकड़कर खींचते हुए बोला, 'आइए दादा! सीधे घर जाइए। इस वक्त पता नहीं क्यों आप बाहर निकले!'
सुरंजन को घर भेजने के लिए सभी उतावले हो उठे थे। सुरंजन को नहीं पहचानते, ऐसे भी एक-दो व्यक्ति वहाँ आ गये और क्या हुआ, जानना चाहा। उन्हें समझाते हुए उन सबने कहा--ये हिन्दू हैं, इनका यहाँ रहना उचित नहीं है। सभी ने सिर हिलाकर हामी भरी-हाँ, इनका रहना ठीक नहीं। लेकिन वह तो घर लौटने के लिए नहीं निकला था। वे उसका हाथ पकड़कर पीठ सहलाते हुए रिक्शे पर उसे चढ़ाना चाह रहे थे। उसी समय सुरंजन ने झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया।
सुधामय लम्बे होकर सोये रहना चाहते हैं, लेकिन नहीं सो सके। बेचैनी-सी लग रही थी। सुरंजन फिर इस समय बाहर निकला है। उसके निकलने के बाद दरवाजे पर धीरे-धीरे दस्तक हो रही थी। सुधामय लपक कर विस्तर से उतरे। सुरंजन वापस आ गया होगा। नहीं, सुरंजन नहीं, अखतारूज्जमां आये हैं। इसी मुहल्ले में उनका मकान है। वे सेवानिवृत्त अध्यापक हैं। उम्र साठ से अधिक होगी। घर में घुसते ही अपने हाथों से कुंडी लगा दिये। 'क्यों, कुछ हुआ तो नहीं?' अखतारूज्जमां ने दबी आवाज में पूछा। ‘नहीं तो! क्या होगा?' सुधाभा ने कमरे का बिस्तर, टेवुल, किताव-कापियों की तरफ देखकर सिर हिलाया। अखतारूज्जमां खुद ही कुर्सी खींचकर बैठ गये। वे ‘सरवाइकल स्पेंडलाइटिस' के रोगी हैं। गर्दन सीधी रखकर आँखों की पुतलियाँ नचाते हुए बोले, 'बाबरी मस्जिद की घटना तो जानते ही हैं? वहाँ कुछ भी नहीं बचा। छिः छिः।'
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