जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
केसर एक समूह में शामिल हो जाता है। जुलूस का आयोजन चल रहा है। पत्रकार लोग झोला और कैमरा लटकाये इधर-उधर भाग-दौड़ कर रहे हैं। उनमें लुत्फर को देखकर भी सुरंजन उसे बुलाता नहीं है। वह खुद ही सुरंजन को देखकर आगे आता है। चेहरे पर उत्कंठा का भाव लिये हुए कहता है, ‘दादा, आप यहाँ क्यों आये?'
'क्यों, मुझे आना नहीं चाहिए?'
लुत्फर के चेहरे और आँखों से एक चरम उत्कंठा का भाव झलक रहा है। उसने पूछा, 'घर पर कोई असुविधा तो नहीं हुई?'
सुरंजन ने पाया कि आज लुत्फर की बातों और कहने के अंदाज में एक तरह का अभिभावक जैसा भाव झलक रहा है। यह लड़का हमेशा से जरा शर्मीले स्वभाव का था। उसकी नजर से नजर मिलाकर कभी बात नहीं की। इतना विनयी, शर्मीला और भद्र लड़का। इस लड़के को सुरंजन ने ही 'एकता' अखबार के सम्पादक से बात करके वहाँ नौकरी दिलायी थी। लुत्फर ने एक बेंसन सिगार जलाया। सुरंजन के काफी करीब आकर बोला, 'सुरंजन दा, कोई असुविधा तो नहीं हुई?'
सुरंजन ने हँसकर कहा, 'कैसी असुविधा?'
लुत्फर जरा असमंजस में पड़ गया। बोला, 'क्या बताऊँ दादा। देश की जो हालत है....'
सुरंजन अपने सिगार का फिल्टर नीचे गिराकर पैर से मसलने लगा। लुत्फर हमेशा उसके साथ धीमे स्वर में बोलता था, लेकिन आज उसकी आवाज ऊँची लग रही थी। सिगार का कश लेकर धुआँ छोड़ते हुए, भौंहें सिकोड़कर उसकी तरफ देखते हुए कहा, 'दादा, आज आप कहीं और ठहर जाइए, आज घर पर ठहरना उचित नहीं होगा। अच्छा सुरंजन दा, घर के आसपास के किसी मुस्लिम परिवार में कमसे-कम दो रात के लिए आपके ठहरने का इन्तजाम नहीं हो सकता?'
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