जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'अच्छा!'
सुरंजन ने इससे ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहा। बचपन की तरह उसके मन में रास्ते के ईंट या पत्थर के टुकड़े को पैर से उछालते हुए चलने की इच्छा हो रही थी। केसर और भी कई मंदिरों को जलाने, घरों को लूटने, जला दिये जाने की घटनाएँ बताता रहा। सुरंजन ने पूरा-पूरा सुना भी नहीं। उसे सुनने की इच्छा भी नहीं हो रही थी। प्रेस क्लब के सामने दोनों खड़े हो गये। वह पत्रकारों का जमघट, कानाफूसी देखता रहा। कुछ-कुछ सुना भी। कोई कह रहा है, भारत में अब तक दो सौ से अधिक व्यक्ति दंगे-फसाद की चपेट में आकर अपनी जान गंवा चुके हैं। जख्मी हुए हैं कई हजार। आर. एस. एस., शिवसेना सहित कट्टरपंथी दलों को निषिद्ध घोपित किया गया है। लोक सभा में विपक्ष के नेता के पद से आडवाणी ने इस्तीफा दिया है। कोई कह रहा है, चट्टग्राम, नन्दनकानन तुलसीधाम का एक सेवक दीपक घोष भागते समय जमातियों द्वारा पकड़ा गया। उसे पकड़ कर वे लोग जलाने की कोशिश कर ही रहे थे कि उसी समय बगल के कुछ पहरेदारों ने दीपक को मुसलमान बताया फलस्वरूप जमातियों ने दीपक को मारपीट कर ही छोड़ दिया।
सुरंजन के परिचित जिन लोगों ने भी उसे देखा, हैरान होकर पूछा, 'क्या वात है? तुम बाहर निकले हो! कोई अघटन घट सकता है। घर चले जाओ।"
सुरंजन ने कोई जवाब नहीं दिया। वह बड़ा लज्जित महसूस कर रहा था। उसका नाम सुरंजन दत्त है इसलिए उसे घर पर बैठे रहना होगा और केसर, लतीफ, बेलाल, शाहीन ये सब बाहर निकलकर कहाँ क्या हो रहा है, इसकी चर्चा करेंगे। साम्प्रदायिकता के विरोध में जुलूस भी निकालेंगे और सुरंजन से कहेंगे-तुम घर चले जाओ। यह कैसी बात है क्या सुरंजन उनकी तरह विवेकपूर्ण, मुक्त विचार धारा तर्कवादी मन का व्यक्ति नहीं है? वह दीवार से सटकर उदास खड़ा था। उसने सिगार की दुकान से एक बंडल 'बांगला फाइव' खरीदा। जलती हुई रस्सी से एक सिगार जलाया। सुरंजन अपने आपको बड़ा अलग-थलग पा रहा था। चारों तरफ इतने लोग हैं। इसमें से कई उसके परिचित और कोई-कोई तो घनिष्ठ भी है। फिर भी उसे बड़ा अकेला लग रहा था। मानो इतने लोग चल फिर रहे हैं, बाबरी मस्जिद के टूटने फिर उसी के परिणामस्वरूप इस देश के मंदिरों के तोड़े जाने की उत्तेजनापूर्ण चर्चा कर रहे हैं। यह सब सुरंजन का विषय ही नहीं है। वह चाहकर भी इसमें शामिल नहीं हो पा रहा है। पता नहीं कहाँ पर उसे एक हिचकिचाहट-सी महसूस हो रही है। सुरंजन समझ रहा है कि उसे सभी छिपाना चाहते हैं, दया कर रहे हैं। उसे अपने समूह में शामिल नहीं कर रहे हैं। सुरंजन जोर से कश खींचकर धुएँ का एक गोला ऊपर की ओर छोड़ता है। चारों तरफ उत्तेजना है और वह अपने शिथिल शरीर का भार दीवार के सहारे छोड़ देता है। कई लोगों ने सरंजन को तिरछी नजर से देखा। विस्मित हुए, क्योंकि एक भी हिन्दू आज घर से बाहर नहीं निकला है। डरकर सभी बिल में घुसे हुए हैं। इसलिए सुरंजन का भय और स्पर्धा देखकर लोग हैरान तो होंगे ही।
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