जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन आँख मूंद कर सोया रहता है। उसे धकेल कर माया बोली, 'तुम उठोगे कि नहीं, बोलो! माँ, पिताजी तुम्हारे भरोसे बैठे हैं।''
सुरंजन अंगड़ाई लेते हुए बोला, 'तुम चाहो तो चली जाओ, मैं इस घर को छोड़कर एक कदम भी नहीं जाऊँगा।'
'और वे?'
'मैं नहीं जानता।'
'यदि कुछ हो गया तो?'
'क्या होगा!'
'मानो घर लूट लिया, जला दिया।'
'क्या तुम उसके बाद भी बैठे रहोगे?'
'बैठा नहीं, लेटा रहूँगा।'
खाली पेट सुरंजन ने एक सिगरेट सुलगायी। उसे चार पीने की इच्छा हो रही थी। किरणमयी रोज सुबह उसे एक कप चाय देती है, पर आज अब तक नहीं दी। इस वक्त उसे कौन देगा एक कप गरम-गरम चाय। माया से बोलना बेकार है। यहाँ से भागने के अलावा फिलहाल वह लड़की कुछ भी सोच नहीं पा रही है। इस वक्त चाय बनाने के लिए कहने पर उसका गला फिर से सातवें आसमान पर चढ़ जायेगा। वह खुद ही बना सकता है पर आलस उसे छोड़ ही नहीं रहा है। उस कमरे में टेलीविजन चल रहा है। सी. एन. एन. के सामने आँखें फाड़कर बैठे रहने की उसकी इच्छा नहीं हो रही है। उस कमरे से माया थोड़ी-थोड़ी देर में चीख रही है, 'भैया लेटे-लेटे अखबार पढ़ रहा है, उसे कोई होश नहीं।
सुरंजन को होश नहीं है, यह बात ठीक नहीं। वह जानता है कि किसी भी समय दरवाजा तोड़कर एक झुण्ड आदमी अन्दर आ सकते हैं, उनमें कई जाने, कई अनजाने होंगे। घर के सामान तोड़-फोड़कर, लूटपाट करेंगे और जाते-जाते घर में आग भी लगा देंगे। ऐसी हालत में कमाल या हैदर के घर आश्रय लेने पर कोई नहीं कहेगा कि हमारे यहाँ जगह नहीं है, लेकिन उसे जाने में शर्मिंदगी महसूस होती है। माया चिल्ला रही है तुम लोग नहीं जाओगे तो मैं अकेली ही चली जा रही हूँ। पारुल के घर चली जाती हूँ। भैया कहीं ले जाने वाले हैं, मुझे नहीं लगता। उसे जीने की जरूरत नहीं होगी, मुझे है!
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