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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


सुरंजन ने डपटा, 'बेवकूफ की तरह बातें क्यों कर रहे हैं? गाँव में जाकर आप बच जाते क्या? मुखिया के लठैत सिर पर लाठी मार कर सब छीन नहीं लेते।'

'सब पर इतना अविश्वास क्यों करते हो? क्या देश में एक दो अच्छे आदमी भी नहीं हैं?'

'नहीं, नहीं हैं।'

'तुम यों ही हताशा के शिकार हो रहे हो।'

'यों ही नहीं।

'तुम्हारे यार-दोस्त? इतने दिनों तक तुमने जो कम्युनिज्म पढ़ा, आंदोलन किया, जिनके साथ उठे-बैठे, उनमें कोई अच्छा आदमी नहीं है?'

'नहीं, कोई नहीं है। सभी कम्युनल हैं।'

'मुझे लगता है तुम्हीं कम्युनल हो रहे हो?'

'हाँ, हो रहा हूँ। इस देश ने मुझे कम्युनल बनाया है। मेरा कोई दोष नहीं है।'

'इस देश ने तुम्हें कम्युनल बनाया है?' सुधामय के स्वर में अविश्वास भरा

'हाँ, देश ने ही बनाया है।'

सुरंजन 'देश' शब्द पर जोर देता है। सुधामय चुप हो जाते हैं। सुरंजन कमरे की टूटी-फूटी चीजों को देखता है। काँच के टुकड़े जमीन पर अब तक बिखरे पड़े हैं। पैर में नहीं चुभता यह सब? पैर में न चुभने पर भी मन में चुभता है!

सुरंजन दिनभर घर में ही सोया रहता है। उसकी कहीं जाने की इच्छा नहीं होती है। किसी के साथ गपशप में भी वक्त गुजारने की इच्छा नहीं होती। क्या एक बार लोहे के पुल की तरफ जायेगा? एक बार नीचे की तरफ ताकेगा माया का सड़ा-गला शरीर देखने के लिए? नहीं, आज वह कहीं नहीं जाएगा।

दोपहर बाद सुरंजन मकान के पक्के आँगन में टहलता है, अकेला, उदास। एक समय कमरे में घुस कर सारी किताबों को आँगन में फेंकता है। कमरे में बैठी किरणमयी सोचती है, शायद उसने किताबों को सुखाने के लिए धूप में रखा है, कीड़े लगे होंगे। दास कैपिटल, लेनिन रचनावली, एन्जेल्स-मार्क्स की रचना, मार्गेन, गोर्की, दोस्तोएवस्की, टाल्स्टाय, ज्याँ पॉल सात्र, पावलोव, रवींद्रनाथ, मानिक वंदोपाध्याय, नेहरू, आजाद “समाज तत्व, अर्थनीति, राजनीति, इतिहास की ईंट की तरह मोटी-मोटी किताबों का पन्ना फाड़-फाड़कर आँगन में बिखेरता है, उन्हें इकट्ठा करके माचिस की तीली उनमें फेंक देता है। हिन्दू को पाकर उग्र, कट्टरवादी मुसलमान जैसे जल उठता है, वैसे ही कागज को पाकर आग धधक उठती है। काले धुएँ से आँगन भर जाता है। जली हुई गंध पाकर किरणमयी दौड़कर आती है। सुरंजन हँसकर कहता है, 'आग तापोगी, आओ।'

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