जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
सुरंजन चुप रहता है। वह सोचता है, 'पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश' नाम बहुत जल्द 'इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश में तब्दील हो जायेगा। देश में शासन करेगा शरीयत कानून। लड़कियाँ बुर्का पहन कर रास्ते में निकलेंगी। देश में टोपी, दाढ़ी और कुर्ते वाले लोग बढ़ जायेंगे। धीरे-धीरे स्कूल-कॉलेज के बदले बढ़ेंगे मस्जिद-मदरसे। हिन्दुओं को चुपचाप खत्म कर देंगे। सोच कर वह सिहर उठता है। उसे कुएँ के मेंढक की तरह घर में बैठे रहना पड़ता है। बाहर आन्दोलन देखने पर विरोध-प्रतिशोध का शब्द सुनने पर उसमें शामिल होने के बजाय दरवाजे में कुंडी लगाये बैठे रहना पड़ता है। क्योंकि उनके लिए 'रिस्क' ज्यादा है। मुसलमान बेझिझक अपनी मांग के लिए नारे लगा सकते हैं, हिन्दू तो नहीं लगा सकते। हिन्दुओं के साथ अन्याय हो रहा है, इस बात को एक मुसलमान जितनी ऊँची आवाज में कह सकता है, उतनी ऊँची आवाज में हिन्दू नहीं कह सकता है, क्योंकि बोलते हुए उसका गला अटक जाता है, कब कौन रात के अंधेरे में उसकी ऊँची आवाज के लिए गला काट जाये, कहा नहीं जा सकता। अहमद शरीफ को 'मुरताद' (धर्मद्रोही) घोषित करके भी उन लोगों ने जिन्दा रखा, लेकिन सुधामय को उल्टा-सीधा कहते ही खामोशी से कत्ल कर दिया जायेगा। हिन्दू के मुँहतोड़ होने पर मौलवी की तो कौन कहे, कोई प्रगतिवादी मुसलमान भी बर्दाश्त नहीं करेगा। सुरंजन को सोचकर हँसी आती है कि प्रगतिवादी लोग भी 'हिन्दू' और 'मुसलमान' नाम धारण करते हैं। सुरंजन खुद को एक आधुनिक मनुष्य मानता था लेकिन अब उसे अपने को 'हिन्दू-हिन्दू' लगता है। क्या वह बर्बाद हो रहा है? शायद वह बर्बाद होता जा रहा है। सुधामय, सुरंजन को और करीब आने को कहते हैं। टूटी हुई आवाज में पूछते हैं, 'क्या माया को कहीं भी खोज कर नहीं पाया जा सकता?'
'पता नहीं।'
'किरणमयी तो उस दिन से एक रात भी नहीं सोयी। तुम्हारे बारे में भी सोचती रहती है। अब अगर तुम्हें कुछ हो गया।
'मरना होगा तो मर जायेंगे, कितने ही लोग तो मर रहे हैं।'
'अब थोड़ा बैठ सकता हूँ, किरणमयी सहारा देकर बाथरूम ले जाती है। पूरी तरह स्वस्थ न होने पर तो रोगी देखना भी संभव नहीं होगा। दो महीने का किराया बाकी हो गया है। तुम एक नौकरी-चाकरी...'
'दूसरों की गुलामी मैं नहीं करूँगा।'
'परिवार दरअसल हमारी वह जमींदारी भी तो नहीं रही, गोला भर धान, तालाब भर मछली, गोहाल भर गायों का सुख हमने पाया है। तुमने अपने समय में क्या पाया। गाँव की जमीन जायदाद बेच दिया, उसके रहने से आखिरी उम्र में गाँव में जाकर एक झोपड़ी बनाकर दिन काट सकता था।'
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