जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'क्या यह सब कोई नई बात है?'
'नई ही तो है। क्या ऐसी घटनाएँ पहले कभी हुई हैं? इसीलिए तो तुम्हारे लिए डरता हूँ।'
'मेरे लिए डर? क्यों आपके लिए डर नहीं है। आप लोग हिन्दू नहीं हैं?' 'हमें और क्या करेंगे?'
'आपका सिर बूढ़ी गंगा में बहा देंगे। अभी तक इस देश के आदमियों को नहीं पहचान पाये, हिन्दुओं को पाते ही 'नाश्ता' करेंगे, बूढा-लड़का नहीं मानेंगे।'
सुधामय के माथे पर विरक्ति की रेखाएँ उभरती हैं। वे कहते हैं, 'इस देश के आदमी क्या तुम नहीं हो?'
'नहीं, अब मैं अपने को इस देश का आदमी नहीं सोच पा रहा हूँ। बहुत सोचने की कोशिश कर रहा हूँ लेकिन सोचना सम्भव नहीं हो पा रहा है। पहले काजल दा वगैरह विषमता की बातें करते थे तो मैं उन पर गुस्साता था। कहता था, फालतू बातें छोड़िये तो, देश में करने को बड़े-बड़े काम हैं, कहाँ हिन्दुओं का क्या हो रहा है, कितने मर रहे हैं, इन बातों पर समय बर्बाद करने का कोई मतलब है? अब धीरे-धीरे देख रहा हूँ वे लोग गलत नहीं कहते हैं और मैं भी अजीब सा होता जा रहा हूँ। ऐसा होने का तो नहीं सोचा था, पिता जी।' सुरंजन का स्वर बुझने लगता है।
सुधामय बेटे की पीठ पर हाथ रखते हैं। बोले, 'लोग रास्ते में तो उतरे हैं, विरोध हो रहा है। अखबारों में खूब लिखा जा रहा है। बुद्धिजीवी लोग रोज लिख रहे हैं।'
'यह सब करके खाक होगा।' सुरंजन की आवाज में गुस्सा है। 'कटार-कुल्हाड़ी लेकर एक दल रास्ते में उतरा है, उसके विरोध में हाथ उठाकर, गला फाड़ने से कोई फायदा नहीं होगा। कुल्हाड़ी का विरोध कुल्हाड़ी से करना पड़ता है। अस्त्र के सामने निहत्थी लड़ाई लड़ना बेवकूफी है।'
'तो क्या हम लोग अपने आदर्शों को तिलांजलि दे देंगे?'
'अब कैसा आदर्श? बकवास है, सब।'
इतने ही दिनों में सुधामय के बालों में और भी सफेदी आ गयी है। स्वर टूट गया है। सेहत आधी हो गयी है। फिर भी उनका मन नहीं टूटा। कहते हैं, 'अब भी तो लोग अन्याय अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाते हैं। इतनी भी शक्ति क्या सभी देशों में है, विरोध करने का अधिकार?'
|