जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
|
360 पाठक हैं |
प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
हैदर काफी देर तक सिर झुकाये खड़े रहने के बाद बोला, 'कुछ सुना है, परवीन यहीं पर है। उसका ‘डायवोर्स' हो गया है।'
सुरंजन सुनता है लेकिन जवाब में कुछ नहीं बोलता। परवीन का 'डायवोर्स' होने की बात सुनकर उसे कोई दुख नहीं हुआ। बल्कि मन-ही-मन सोचा, ठीक हुआ। हिन्दू के साथ शादी नहीं की, मुसलमान के साथ की, अब कैसा लग रहा है? परवीन को वह एक बार मन-ही-मन 'रेप' करता है। इतनी सुबह दाँत माँजते हुए 'रेप' करना उतना संतोष नहीं देता, फिर भी मन में 'रेप' की इच्छा रह ही जाती है।
कुछ देर बाद हैदर ने कहा, 'चलता हूँ।' वह हैदर को नहीं रोकता।
सुधामय अब उठकर बैठ सकते हैं। पीठ के पीछे तकिया लगाये निस्तब्ध घर की खामोशी सुनते हैं। सुधामय सोचते हैं, इस घर में सबसे ज्यादा जीने की साध माया को ही थी। उनके साथ यदि ऐसी दुर्घटना हुई होती तो माया को पारुल के घर से नहीं जाना पड़ता। और न ही उसे लापता होना होता। क्या तो किसी ने उसे लोहे के पुल के नीचे देखा है। लेकिन लाश देखने कौन जायेगा? सुधामय जानते हैं कोई नहीं जायेगा। क्योंकि सभी विश्वास करना चाहते हैं, कि माया एक दिन जरूर वापस आयेगी। यदि पुल के नीचे पड़ी लाश माया की ही होगी तो हमेशा के लिए माया के लौटने की उम्मीद अपने सीने से लगाये वे जिन्दा नहीं रह पायेंगे। आज हो, कल या परसों हो, या फिर एक वर्ष, दो वर्ष या पाँच वर्ष बाद, माया वापस आयेगी जरूर, इस उम्मीद को जीवित रखना होगा। कुछ उम्मीदें ऐसी होती हैं जो मनुष्य को बचाती हैं। इस संसार में जिन्दा रहने के आधार इतने कम हैं कि कम-से-कम थोड़ी बहुत उम्मीदें ही बची रहें। बहुत दिनों के बाद उन्होंने सुरंजन को अपने पास बुलाया। करीब बैठने को कहा। टूटे हुए स्वर में बोले, 'दरवाजा खिड़की बंद करके रहने में बड़ी लज्जा होती है।'
'आपको लज्जा आती है, मुझे तो गुस्सा आता है।'
'तुम्हारे लिए बहुत चिन्ता होती है।' सुधामय अपना बायाँ हाथ बेटे की पीठ पर रखना चाहते हैं।
'क्यों?'
'देर रात लौटते हो। कल हरिपद आये थे, सुना है, भोला की हालत बहुत नाजुक है। हजारों लोग खुले आकाश के नीचे बैठे हैं। घर द्वार कुछ नहीं बचा है। लड़कियों को 'रेप किया गया।
|