जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
माया अब कहाँ है, क्या बंद घर में हाथ-पाँव बाँधकर उससे बलात्कार किया होगा, उन सातों ने ही? माया को अवश्य ही बहुत कष्ट हुआ होगा, क्या वह उस समय बहुत चिल्लाई होगी? एक समय की बात है। माया तब पंद्रह-सोलह वर्ष की थी, सपने में भैया-भैया' कहकर चीख उठी थी। सुरंजन दौड़कर गया तो देखा, माया नींद में ही थर-थर काँप रही है, 'माया, काँप क्यों रही हो?' जागने के बाद भी माया का काँपना बंद नहीं हुआ। खोई हुई सी सपना बताने लगी, 'एक सुन्दर गाँव में हम दोनों घूमने गये हैं। धान के खेत के बीच से हम जा रहे हैं, बात कर रहे हैं। आस-पास दो चार और लोग भी चल रहे हैं, वे बीच-बीच में हमसे बात कर रहे हैं। अचानक देखती हूँ, धान-खेत नहीं हैं, उनकी जगह एक सुनसान मैदान है, साथ में तुम भी नहीं हो। अचानक देखती हूँ, पीछे से कई लोग मुझे पकड़ने आ रहे हैं, डर कर मैं दोड़ रही हूँ, तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ।' हाय रे, माया। सुरंजन की साँसें घनी हो जाती हैं, उसे लगता है माया बहुत चिल्ला रही है। रो रही है। किसी अँधेरे कमरे में एक झुण्ड जंगली जानवरों के बीच बैठी रो रही है। माया अब कहाँ होगी, छोटा-सा शहर है लेकिन उसे पता नहीं कि उसकी प्रिय बहन कूड़े के ढेर में, वेश्यालय में या बूढ़ी गंगा के जल में है? कहाँ है माया? मन में आता है कि इस लड़की को धक्का मार कर बाहर कर दे।
वह लड़की सुरंजन के हाव-भाव से डर जाती है। जल्दी से कपड़े पहनकर कहती है, 'पैसे दीजिए।
'खबरदार, अभी निकल।' सुरंजन गुस्से से उछल पड़ता है। शमीमा दरवाजा खोलती हुई एक पाँव बाहर निकाल कातर दृष्टि से देखती है। गले की खरोंच से खून निकल रहा है, बोलती है, 'दस ही रुपये दे दीजिए।'
उस समय सुरंजन के समूचे शरीर से मानो गुस्सा छलक पड़ना चाहता है। लेकिन लड़की की करुण आँखें देख कर उसे दया आ जाती है। एक दरिद्र लड़की। पेट की आग बुझाने के लिए शरीर बेचती है। समाज के नष्ट नियम उसके श्रम, बुद्धि किसी भी चीज को काम में न लाकर उसे ठेल दे रहे हैं एक अँधेरी गली में। वह जरूर ही आज मिले पैसे से एक मुट्ठी चावल खायेगी। पता नहीं कितने दिनों की भूखी है। सुरंजन पैंट की जेब से दस रुपये निकाल कर उसके हाथ पर रखते हुए पूछता है, 'तुम मुसलमान ही हो न?'
'हाँ।'
'तुम लोग तो नाम बदल लेती हो, तुमने तो नहीं बदला है?'
'नहीं।'
'ठीक है, जाओ।'
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