जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
शमीमा चली जाती है। सुरंजन को बहुत सुकून मिलता है। वह आज किसी चीज के लिए दुखी नहीं होगा। आज विजय का दिन है। सभी आनन्द उल्लास में हैं। पटाखे फोड़ रहे हैं। इक्कीस साल पहले इसी दिन आजादी मिली थी, इसी दिन शमीमा बेगम भी सुरंजन के घर आयी। वह स्वाधीनता, वाह! सुरंजन की इच्छा हुई बिगुल बजाने की। क्या वह एक गाना गा उठेगा, 'प्रथम बांग्ला देश मेरा, शेष बांग्ला देश, जीवन बांग्ला देश मेरा, मरण बांग्ला देश।'
शमीमा को एक बार भी उसके नाम से नहीं पुकारा। उसका नाम सुरंजन दत्त है, यह बताना भी उचित था। ताकि शमीमा को भी पता चलता कि उसे नोंच-खसोट कर खून निकालने वाला आदमी एक हिन्दू युवक है। हिन्दू भी बलात्कार करना जानते हैं। उनके पास भी हाथ, पाँव, सिर है, उनके पास भी तीखे दाँत हैं, उनके नाखून भी नोंचना-खसोटना जानते हैं। शमीमा नितान्त निरीह लड़की है, फिर भी मुसलमान तो है। मुसलमान के गाल पर एक थप्पड़ लगा पाने से सुरंजन को सुख मिलता है।
सारी रात प्रचंड अस्थिरता में बीती। कभी होश में, कभी बदहोशी में सारी रात सुरंजन अकेला, भुतही निस्तब्धता में, असुरक्षित, आतंक के काले डैने के नीचे तड़पता रहा। उसे नींद नहीं आयी। उसने आज एक तुच्छ प्रतिशोध लेना चाहा था, लेकिन नहीं ले पाया। प्रतिशोध वह ले भी नहीं सकता है। सारी रात सुरंजन अवाक् होकर सोचता रहा कि शमीमा नामक लड़की के लिए उसे माया हो रही है, करुणा हो रही है। ईर्ष्या नहीं होती। गुस्सा नहीं आता। यदि ऐसा नहीं हुआ तो प्रतिशोध किस बात का। फिर तो वह एक तरह की पराजय ही है। सुरंजन क्या पराजित है? तो सुरंजन पराजित ही है। शमीमा को वह ठग नहीं पाया। यों ही वह लड़की ठगाई हुई है। उसके लिए 'संभोग' और 'बलात्कार' अलग-अलग नहीं है। सुरंजन बिस्तर में सिमटता जा रहा था, यन्त्रणा और लज्जा से। रात तो काफी हो चुकी है, फिर सुरंजन को नींद क्यों नहीं आती। क्या वह बर्बाद हो रहा है, बाबरी मस्जिद की घटना ने उसे बर्बाद कर दिया, उसे साफ पता चलता है कि उसके हृदय में सड़न शुरू हो गयी है। इतना कष्ट क्यों हो रहा है, जिस लड़की को उसने दाँत से नोंचा, काटा, उसी के लिए कष्ट हो रहा है। काश, वह जाने से पहले उस लड़की के गर्दन से निकल रहे खून को रूमाल से पोंछ पाता। क्या वह लड़की फिर कभी मिल सकती है। बार काउंसिल के मोड़ पर खड़ा होने से अगर वह लड़की कभी मिल जाये तो सुरंजन उससे क्षमा माँग लेगा। इतनी जाड़े की रात में भी उसे गरमी लगती है। वह बदन से रजाई उतार देता है। उसके विस्तर की चादर पैर के पास सिकुड़ी हुई है। गंदे गद्दे के ऊपर घुटनों में सिर घुसाए वह सोया रहता है। कुत्ते की तरह कुण्डली मार कर । सुबह उसे जोर से पेशाब लगी। फिर भी उठने की इच्छा नहीं हुई। किरणमयी चाय रखकर जाती है। उसे कुछ खाने की इच्छा नहीं होती। उबकाई-सी आती है। उसे गरम पानी से नहाने की इच्छा होती है। लेकिन गरम पानी कहाँ मिलेगा? ब्रह्मपल्ली के मकान में तालाब था, जाड़े की सुबह तालाब में उतरने पर रोंगटे खड़े हो जाते थे। फिर भी तालाब में न तैरने पर उसका नहाना ही पूरा नहीं होता था। आज भी काश वह खूब तैर-तैर कर नहा पाता, लेकिन यहाँ तालाब कहाँ। वह अगाध पानी कहाँ। नल के नपे हुए पानी से नहाने की इच्छा नहीं होती। जीवन में इतनी क्यों नाप-तौल है।
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