जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
बार कौंसिल के सामने सुरंजन ने रिक्शा रुकवाया। सिगरेट सुलगाई। माया को वापस पाने की उम्मीद उसने छोड़ दी है। सुधामय और किरणमयी से भी कहेगा कि माया के लौटने की उम्मीद अब न करें। वे सोच लें कि किसी सड़क-दुर्घटना में माया मर गयी। उन दिनों के सचल, सक्षम सुधामय की ऐसी रिक्त, निर्जन, असहाय दशा सुरंजन से सही नहीं जाती। वह शख्स माया को वापस न पाने की वेदना-यंत्रणा से सारा दिन कराहता रहता है। जिस तरह कोई गिद्ध मनुष्य को नोंच कर खाता है, शायद वे भी उसी तरह माया को खा रहे होंगे, नोंच-नोंच कर, फाड़-फाड़ कर। आदिम मनुष्य जिस तरह कच्चा मांस खाता था, क्या उसी तरह? कैसी एक अबूझ यन्त्रणा सुरंजन की छाती को नोंच रही है, मानो उसे ही कोई खा रहा है। सात आदमखोरों का दल। उसकी सिगरेट खत्म नहीं होती है, इतने में एक लड़की उसके रिक्शे के पास आकर खड़ी हो गयी। सोडियम लैम्प की रोशनी में उसका चेहरा चमक रहा था। जरूर ही उसने चेहरे पर रंग पोत रखा है। उम्र उन्नीस-बीस की होगी।
सुरंजन ने सिगरेट फेंकते हुए लड़की को बुलाया। कहा, 'ए, सुनो।' वह लड़की रिक्शे के पास आकर खड़ी हुई। मचलती हुई हँसती है।
सुरंजन ने पूछा, 'तुम्हारा नाम क्या है?'
लड़की हँसकर बोली, 'पिंकी।'
'पूरा नाम बताओ।'
'शमीमा बेगम।'
'पिता का नाम?'
'अब्दुल जलील।'
'घर?'
'रंगपुर।'
'क्या नाम बताया तुमने?'
'शमीमा।'
वह लड़की हैरान हुई। कोई भी तो इस तरह बाप का नाम, घर का नाम नहीं पूछता है। यह कैसा ग्राहक है। तीखी निगाह से सुरंजन, शमीमा को देखता है। क्या यह लड़की झूठ बोल रही है, लगता नहीं।
'ठीक है, बैठो रिक्शे पर।'
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