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लज्जा

तसलीमा नसरीन

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2125
आईएसबीएन :81-7055-777-1

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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...


हरिपद डॉक्टर ने कहा, 'मायोकार्डियल इनफैक्शन है, तुरन्त अस्पताल में भर्ती कराना होगा।' यह बात जब सुरंजन ने काजल से जाकर कही तो वह जम्हाई लेकर वोला, 'इतनी रात गये कैसे शिफ्ट करेंगे? सुबह होने दो, कुछ इन्तजाम किया जायेगा। लेकिन सूचना मिलते ही बेलाल फौरन गाड़ी लेकर सुरंजन के घर पहुँच गया था। खुद भाग-दौड़ करके उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाया। बार-बार सुधामय से कहता रहा, 'चाचा जी, आप किसी तरह की चिन्ता मत कीजिए, मुझे आप अपना बेटा ही सोचिये'। उसका व्यवहार देखकर सुरंजन का मन गद्गद हो उठा था। जब तक सुधामय अस्पताल में थे, बेलाल उनका हाल-चाल पूछने आ जाया करता था। परिचित डॉक्टरों से सुधामय के प्रति विशेष ध्यान देने को कह दिया था। समय मिलते ही वह खुद मिलने आ जाया करता था। अस्पताल में आने-जाने के लिए अपनी गाड़ी दे रखी थी। कौन करता है, इतना सब कुछ। पैसा तो काजल के पास भी है लेकिन क्या वह सुरंजन के लिए इतना उदार हो सकता है? सुधामय की बीमारी में जितना भी खर्च हुआ, पूरा रबिउल ने दिया। एक दिन टिकाटुली के घर पर अचानक रबिउल आया। पूछा, 'सुनने में आया है कि तुम्हारे पिताजी अस्तपाल में हैं?' सुरंजन के 'हाँ' या 'नहीं' कहने से पहले ही टेबिल पर एक लिफाफा रखते हुए बोला, 'इतना पराया मत सोचो मेरे दोस्त' इतना कहते हुए वह जिस तरह अचानक आया था, अचानक चला भी गया। सुरंजन ने लिफाफा खोलकर देखा, उसमें पाँच हजार रुपये थे। सिर्फ सहायता की इसलिए नहीं, बल्कि उसके साथ उसके हृदय का मेल भी अधिक था। रबिउल, कमाल और हैदर को सुरंजन ने अपने जितना करीब पाया उतना असीम, काजल, जयदेव को नहीं पाया। रत्ना ही नहीं, परवीन को भी उसने जितना प्यार किया था, उसे यकीन है कि वह किसी अर्चना, दीप्ति, गीता या सुनन्दा को उतना प्यार नहीं कर पायेगा। साम्प्रदायिक भेदभाव करना तो सुरंजन ने कभी सीखा ही नहीं।

बचपन में तो वह जानता ही नहीं था कि वह हिन्दू है। वह उस समय मयमनसिंह जिला स्कूल की कक्षा तीन-चार में पढ़ता था। खालिद नाम के एक सहपाठी के साथ कक्षा की पढ़ाई-लिखाई से सम्बन्धित किसी बात को लेकर उसका तर्क-वितर्क हो रहा था। जो थोड़ी ही देर में झगड़े में बदल गया। खालिद ने उसे गालियाँ दीं, 'कुत्ते का बच्चा, सुअर का बच्चा, हरामजादा' आदि बदले में सुरंजन ने भी उसे गालियाँ दीं। खालिद ने कहा, 'कुत्ते का वच्चा!' सुरंजन ने कहा, 'तुम कुत्ते का बच्चा!' खालिद ने कहा, 'हिन्दू'! सुरंजन ने कहा, 'तुम हिन्दू!' उसने सोचा, 'कुत्ते का बच्चा', 'सुअर का बच्चा' की तरह 'हिन्दू' भी एक गाली ही है। काफी समय तक सुरंजन सोचता था कि 'हिन्दू' शब्द शायद तुच्छार्थ, व्यंगार्थ में व्यवहृत होने वाला कोई शब्द है। बाद में बड़ा होकर सुरंजन को पता चला कि हिन्दू एक सम्प्रदाय का नाम है और वह उसी सम्प्रदाय का एक व्यक्ति है। आगे चलकर उसे यह भी ज्ञात हुआ कि वह दरअसल मानव सम्प्रदाय का व्यक्ति है और बंगाली जाति का है। किसी भी धर्म ने इस जाति को नहीं बनाया। वह वंगाली को असाम्प्रदायिक और समन्वयवादी जाति के रूप में ही मानना चाहता है। उसे विश्वास है कि 'बंगाली' शब्द एक विभाजन विरोधी शब्द है। 'बंगाली स्वधर्मीय विदेशी को अपना और अन्य धर्मावलम्बियों को पराया समझता है, यह जो गलत धारणा है, इसी ने बंगाली को 'हिन्दू' और मुसलमान' में बाँटा है।

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