जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'मैं नहीं जाऊँगा। तुम जाना चाहती हो तो जाओ। अपना घर छोड़ा, इसका मतलब यह तो नहीं कि अपना देश भी छोड़ दूँ?' सुधामय झल्लाकर यह सब कहते। सुधामय दत्त तांतीबाजार छोड़कर 'आरमणि टोला' में छह वर्ष रहने के बाद करीब सात वर्षों से 'टिकाटुली' में रह रहे हैं। इसी बीच हार्ट की बीमारी पकड़ चुकी है। गोपीबाग की एक दवा की दुकान में बैठने की बात थी लेकिन वहाँ भी नियमित रूप से नहीं बैठ पा रहे हैं। घर पर ही रोगी आते हैं। बैठक में रोगी देखने के लिए एक टेबिल और एक तरफ एक चौकी रखी हुई है। दूसरी तरफ बेंत का एक सोफा रखा हुआ है। ताक में काफी किताबें हैं, जिनमें डॉक्टरी, साहित्य, समाज, राजनीति आदि की किताबों का ढेर है। सुधामय अपना अधिक समय उसी कमरे में बिताते हैं। शाम को चप्पल चटकाते हुए निशीथ बाबू आते हैं, अत्तारूज्जमाँ, शहीदुल इस्लाम, हरिपद भी प्रायः यहाँ आते थे। देश की राजनीति को लेकर बातें होतीं। किरणमयी उनके लिए चाय बनाती। ज्यादातर बगैर चीनी की चाय ही बनानी पड़ती क्योंकि सभी की उम्र हो गयी है।
जुलूस की आवाज सुनकर सुधामय चौंककर बैठ गये। सुरंजन दाँत-से-दाँत दबाये हुए था। किरणमयी का कबूतरों जैसा नरम दिल डर और क्रोध से जोर-जोर से धड़कने लगा। क्या सुधामय को कोई आशंका, थोड़ा भी क्रोध नहीं होना चाहिए?
सुरंजन के दोस्तों में मुसलमानों की संख्या ही अधिक है लेकिन उन्हें मुसलमान कहना भी ठीक नहीं। वे धर्म-कर्म को कोई खास महत्त्व नहीं देते थे। इसके अलावा वे सब तो सुरंजन को हमेशा अपना निकटस्थ व्यक्ति ही सोचते थे। उनके मन में इसे लेकर कोई दुविधा नहीं थी। पिछली बार तो कमाल खुद आकर सुरंजन और उसके परिवार को अपने घर ले गया था। वैसे तो पुलक, काजल, असीम, जयदेव भी सुरंजन के दोस्त हैं लेकिन घनिष्ठता कमाल, हैदर, बेलाल और रबिउल के साथ ही अधिक है। सुरंजन जब भी किसी मुसीबत में पड़ा, काजल और असीम से अधिक हैदर और कमाल को अपने नजदीक पाया। एक बार सुधामय जी को सोहरावर्दी अस्पताल में भर्ती कराने की नौबत आयी थी। उस समय रात के डेढ़ बज रहे थे।
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