जीवन कथाएँ >> लज्जा लज्जातसलीमा नसरीन
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प्रस्तुत उपन्यास में बांग्लादेश की हिन्दू विरोधी साम्प्रदायिकता पर प्रहार करती उस नरक का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया गया है...
'इतना जल्दी जाना चाहते हो?'
'अच्छा नहीं लग रहा है।'
सन् 1954 में राष्ट्रीय संसद में कुल सदस्य संख्या 309 थी। अल्पसंख्यक थे 72 । सत्तर में तीन सौ में अल्पसंख्यक ग्यारह। 1993 में कुल 315 में महज 121 1979 में 330 में आठ। 1986 में 330 में सात। 1988 में महज चार और 1991 में 330 में 12 । बांग्लादेश की सेना में कोई अल्पसंख्यक मेजर या ब्रिगेडियर नहीं है। 70 कर्नलों में एक, 450 लेफ्टीनेंट कर्नलों में आठ, एक हजार मेजर में 40. तेरह सौ कैप्टनों में आठ, नौ सौ सेकिण्ड लेफ्टीनेंटों में तीन, 80 हजार सिपाहियों में पांच सौ, 40 हजार बी. डी. आर. में हिन्दू महज तीन सौ हैं। 80 हजार पुलिसकर्मियों में धार्मिक अल्पसंख्यकों की तादाद महज दो हजार है। एडीशनल आई. जी. कोई नहीं, आई. जी. तो है ही नहीं। पुलिस अफसरों के 870 सदस्यों में अल्पसंख्यक महज 53 हैं। गृह, विदेश, सुरक्षा मंत्रालयों में उच्च पदों पर, विदेश के बांग्लादेश मिशन में अल्पसंख्यक संप्रदाय का कोई नहीं है। सचिवालय की स्थिति तो और भी बुरी है। सचिव या अतिरिक्त सचिव के पद पर अल्पसंख्यक संप्रदाय का एक भी आदमी नहीं है। 34 संयुक्त सचिवों में महज तीन, 463 उपसचिवों में अल्पसंख्यक 25 हैं। स्वायत्तशासी संस्थाओं में प्रथम श्रेणी के अधिकारी 46 हजार 894 हैं, जिसमें अल्पसंख्यकों की संख्या तीन सौ है। सरकारी, अर्ध-सरकारी, स्वायत्तशासी प्रतिष्ठानों के प्रथम और द्वितीय श्रेणी के पदों पर अल्पसंख्यकों की तादाद पाँच फीसदी से ज्यादा नहीं है। आबकारी और टैक्स महकमे के 152 कर्मियों में एक, आयकर विभाग के साढ़े चार सौ कर्मियों में आठ, राष्ट्र औद्योगिक प्रतिष्ठानों में अधिकारियों की संख्या एक फीसदी, कर्मचारी तीन चौथाई, श्रमिक एक चौथाई से भी कम। इतना ही नहीं, बांग्लादेश बैंक समेत किसी भी बैंक के डायरेक्टर, चेयरमैन या एम. डी. के पद पर एक भी हिन्दू नहीं है। यहाँ तक कि वाणिज्य बैंकों की किसी भी शाखा के मैनेजर पद पर एक भी हिन्दू नहीं है। व्यवसाय में मुसलमान पार्टनर न रहने पर सिर्फ हिन्दू प्रतिष्ठानों को हमेशा लाइसेंस भी नहीं मिलता है। इसके अलावा सरकार द्वारा नियंत्रित बैंक, विशेषकर औद्योगिक संस्थान से उद्योग, फैक्ट्री के लिए कोई ऋण नहीं मिलता है।
सुरंजन को सारी रात नींद नहीं आयी। उसे अच्छा न लगने की बीमारी ने जकड़ लिया है। किरणमयी सुबह एक बार कमरे में आयी थी। शायद माया के बारे में पूछने आयी रही होगी, क्या अब कुछ भी करने को नहीं है? दिन क्या इसी तरह माया के बिना ही गुजरेंगे? इन दिनों किरणमयी भी मरी-मरी-सी हो गयी है। आँखों के नीचे झाईं पड़ गयी है। सूखे होठों पर कोई शब्द नहीं है, न हँसी ही है। सुरंजन बिस्तर पर इस तरह शिथिल पड़ा था, मानो वह सो रहा हो। किरणमयी को समझने नहीं दिया कि उसके भीतर एक भीषण यन्त्रणा हो रही है। किरणमयी उसके टेबुल पर दोनों वक्त चुपचाप खाना रख जाती है। सुरंजन को बीच-बीच में गुस्सा भी आता है, क्या यह पत्थर की बनी है? उसका पति पंगु है, बेटी खो गयी है, बेटा रह कर भी नहीं है फिर भी उसे किसी से कोई शिकायत नहीं। लाश की तरह शिकायत हीन, भावहीन, आश्चर्यपूर्ण जीवन है किरणमयी का।
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